Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४६१-५०६
लेण्यामार्गणा/५८३
लेश्या वाला होता है। इस प्रकार षट्स्थान पतित स्वरूप से स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है। घही अनन्तगुणी हानि के द्वारा नील लेश्या रूप से परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होने का कारण लेश्या युन जी का लेश' की वृद्धि द्वारा एक विकल्प होता है। उसीके विशुद्धि (संक्लेश की हानि) को प्राप्त होने पर दो बिकल्प होते हैं। कृष्णलेश्या की हानि से एक और नीललेण्या में संत्रम से दूसरा विकल्प होता हैं। यह कृष्णलेश्या का परिणमन विधान है।'
नोललेश्या का परिणमन विधान--नीललेण्या से संक्लेश को प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतितवृद्धि संक्रम स्थान के द्वारा भोललेश्या में ही संक्रमण करता है अथवा वह अनन्तगुण वृद्धि के क्रम से कृष्णलेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होने पर दो विकल्प होते हैं। नील लेश्या से विशुद्धि को प्राप्त होने वाला पदस्थान पतित हानि के द्वारा नीललेश्या की हानि को प्राप्त होता है। वहीं अनन्तगुणी हानि के द्वारा हानि को प्राप्त होता हुआ कापोतलेश्या रूप से भी परिणत होता है। इस प्रकार नीललेश्या से विशुद्धि को प्राप्त होने वाले के (संक्लेश की हानि को प्राप्त होने वाले के ) दो विकल्प हैं। यह नीललेश्या वाने का परिणमन विधान है।
कापोत लेश्या का परिणमन विधान-कापोत लेश्या में संक्लेश को प्राप्त होता हुया अनियम से षट्रस्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धिंगत होता है। वहीं अनन्तगुरगी वृद्धि के द्वारा नियम से नील लेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को वृद्धि के कारण कापोतलेश्या में दो विकल्प हैं। विशुद्धि (संकलश की हानि) के कारण षट्स्थान पतित हानि के द्वारा स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है । वही अनन्तगुणहानि द्वारा तेजलेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश की हानि के कारण कापोतलेश्या में दो विकल्प होते हैं । यह कापोत लेश्या का परिणमन विधान है।
पोतलेश्या का परिणमन विधान--पीत लेश्या शुभ है। इसमें षट् स्थान पतित संक्लेश वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में हीनता होती है। अनन्तगुणी हीनता के द्वारा पीतलेश्या' कापोत लेश्या में परिणत हो जाती है। इस प्रकार संक्लेशवृद्धि के कारण पीतलेश्या में दो विकल्प होते हैं । विशुद्धि में षट्स्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धि को प्राप्त होता है। अनन्तगुणी वृद्धि के द्वारा पालेश्या रूप भी परिणत हो जाता है। इस प्रकार विशुद्धि के कारण पीत (तेज) लेश्या में दो विकल्प है।
पनलेश्या का परिणमन विधान पद्म शुभलेश्या में षट्स्थानपतितद्धिगत विशुद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धि होती है विशुद्धि में अनन्तगुणी वृद्धि से शुक्ललेश्या रूप परिणत हो जाता है। विशुद्धि में षट्स्थान पतित हानि के द्वारा अथवा संक्लेश के कारण स्वस्थान में हीनता होती है वहीं अनन्तगुण हानि के द्वारा तेजोलेश्या में संक्रमण को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार पद्मलेश्या के परिणमन का विधान है ।
शुक्ललेश्या का परिणमन विधान-शुवल लेश्या में विशुद्धि की हानि (संक्लेश) को प्राप्त होता हुमा षट्स्थानपतित हानि के द्वारा स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है । वहीं अनन्तगुणहानि
४. धवल पु.
१, धवल पु. १६ पृ. ४६३-४६४ | २. पवल पु. १६ पृ. ४६४ । ३. धवल पु. १६ पृ. ४६४ । १६ पृ. ४६४-४६५। ५. धवल पु. १६ पृ. ४६५ ।