Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पाथा ४६६-४९८
लेश्यामार्गणा/५७६ लेश्या होती है।) तंजस शरीर तेजलेश्यावाला तथा कार्मण शरीर शुक्ललेश्या वाला होता है ।
शङ्का-- शरीर तो सब बर्णवाले पुद्गलों से संयुक्त होते हैं, फिर इस शरीर की यही लेश्या होती है, ऐमा नियम कैसे हो सकता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट वर्ण की अपेक्षा वैसा निर्देश किया गया है। यथा-जिस शरीर में श्याम वर्ण की उत्कृष्टता है, वह कृष्णा लेश्या युक्त कहा जाता है। जिसमें नील वर्ण की प्रधानता है वह नील लेण्यावाला, लोहित वर्ण की प्रधानता युक्त जो शरीर है वह तेजलेश्या वाला, हरिद्रा वर्ण की उत्कर्षता युक्त शरीर पद्म लेश्यावाला तथा शुक्ल वर्ण की प्रधानता युक्त शरीर शुक्लले ण्यावाला कहा जाता है । इन वर्गों को छोड़कर वर्णान्तर को प्राप्त हुए शरीर को कापोतलेश्या बाला समझना चाहिए। इसका विशेष इस प्रकार है
कृष्णलेश्या युक्त द्रव्य के शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्त गुणे, लोहितगुण अनन्तगुरणे, नीलगुण अनन्तगुणे और श्यामगुण अनन्तगुणे होते हैं। नीललेश्या युक्त द्रव्य के शुक्लगुण स्तोक, हारिद्रगुण अनन्तगुणे, लोहितगुण अनन्तगुरणे, श्यामगुण अनन्तगुणे और नील गुण अनन्तगुणे होते हैं। कापोतले श्याबाले के विषय में तीन विकल्प हैं प्रथमविकल्प --- शुक्लगुण स्तोक है. हारिद्रगुण अनन्तगुणे, श्यामगुरण अनन्त गुणे, लोहितगुण अनन्तगुणे और नीलगुण अनन्त गुणे हैं । द्वितीयविकल्प-शुक्लगुण स्तोक, श्यामगुण अनन्तगुणा, हारिद्रगुरण अनन्तगुणा, नीलगुण अनन्तगृणा और लोहितगुण अनन्तगुणा है। तृतीय विकल्प-- श्यामगुण स्तोक, शुक्लगुरण अनन्तगुणे, नीलगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और लोहितगुण अनन्तगुण हैं । तेजोलेश्या वालों में श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरणे, शुक्लगुरग अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और लोहितगुग अनन्तगुणे होते हैं । पपलेश्यावालों के विषय में सीन विकल्प हैं। प्रथमयिकल्प---श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरणे, शुक्लगुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे और हारिद्रगुण अनन्तगुणे होते हैं। द्वितीय विकल्प--श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरगे, लोहितगुण अनन्तगुणे, शुक्ल गुण अनन्तगुणे और हारिद्रगुण अनन्तगुणे हैं । तृतीय विकल्प श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुणे, लोहितगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और शुक्लगुण अनन्तगुण होते हैं । शुक्ल लेश्यावाले के प्रयामगुण स्तोक, नीलगुरण अनन्तगुरणे, लोहितगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुरण अनन्तगुणं और शुक्न उत्कटगुण अनन्तगुणे हैं ।
कापोत लेश्या नियम से विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतु:स्थानिक
शङ्का--भवनत्रिक देवों में पर्याप्त काल में छहों लेण्या होती है यह बचन घटित नहीं होता, क्योंकि उनके पर्याप्तकाल में छहो लेश्यानों का अभाव है। यदि कहा जाय कि देवों के भाव से छहों लेश्या न होवें, किन्तु द्रव्य से छहों लेश्या होती है, क्योंकि द्रव्य और भाव में एकता का प्रभाव है । सो ऐसा कथन भी नहीं बनता, क्योंकि जो भावलेल्या होती हैं, उसी तेश्या बाले औदारिक, वैऋियिक और आहारक शरीर सम्बन्धी नोकर्म परमाणु पाते हैं। यदि यह कहा जाय कि उक्त बात कैसे जानी
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१. "तदो वणणामकम्मोदयदो भवगावमिय-वारावेतरोइमिग्राणं छलेसा नो भवंनि ।" [ध.पू. २ पृ. ५३५] । २. घ.पु. १६ पृ. ४८५-४८६ । ३. धवल पु. १६ पृ. ४८६-४८५ । ४. धवल पु. १६ पृ. ४५७-४८८ ।