Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४९४-४६५
लेश्यामार्गणा/५५०७
प्रकार षट्स्थानपतितहानिवृद्धि के कारण लेश्याओं के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हो जाते हैं।
___ गाथा में द्रव्याथिक नय की विवक्षा से “नियम में छह लेश्या होती है" ऐसा कहा गया है । पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से छह लेण्या का नियम नहीं है ।
वर्ण की अपेक्षा लेश्या का वर्णन बण्णोदयेरण जरिणदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ॥४६४॥ छप्पयरगोलकबोद सुहेमंबुजसंखसणिहा वणे । संखेज्जासंखेज्जारांत-वियप्पा य पत्तेयं ॥४६॥
गाथार्थ--वर्ग नाम कर्मोदय-जनित शरीर का वर्ण द्रव्य लेश्या है। वह कृष्ण आदि के भेद से ६ प्रकार की है । तथा प्रत्येक के उत्तर भेद अनेक हैं । षट्पद अर्थात् भ्रमर, नीलमरिण, कबूतर, सुवर्ण, अम्बुज (कमल) और शंख के समान इन छह लेश्यानों के वर्ण होते हैं। इनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं ।।४६४-४६५॥
विशेषार्थ --चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्कन्धों के वर्ग को तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यलेश्या कहते हैं । वह छह प्रकार की है-कृष्णलेश्या, नील लेण्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। उनमें कृष्ण लेश्या भ्रमर, अंगार (कोयला) और कज्जल आदि के होती है। नीम, कदली और दान के पत्तों आदि के नील लेश्या होती है। छार, खर और कबूतर आदि के कापोत लेश्या है। क कम, जपाकसम और कसम कूसमादि की तेजोलेश्या है। तडवडा और पद्मपुष्पादिकों के पालेश्या होती है । हंस और बलाका आदि की शुक्ल लेश्या होती है। कहा भी है
किण्णं भमरसवाणा णीला पुण णीलिगुणियसंकासा । काऊ कवोदयणरणा तेऊ तवणिज्जवण्णाभा ॥१॥ पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुम संकासा।
किरणाविवग्यलेस्सावणयिसेसा मुणेयव्या ॥२॥ कृष्णलेश्या भ्रमर के सदृश, नीललेश्या नील गुण वाले के सदृश, कापोत लेण्या कबूतर जैसे वर्णवाली, तेजलेश्या सुवर्ण जैसी प्रभावाली, पद्मलेश्या पद्म के वर्ण समान और शुक्ल लेश्या कांस के फूल समान होती है। इन कृष्ण आदि द्रव्यलेषयात्रों को क्रम से उक्त वर्ण विशेषों रूप जानना चाहिए।
द्रष्यार्थिक नय की विवक्षा होने पर द्रव्यलेश्या छह प्रकार की है। पर्यायाथिक नय की विवक्षा होने पर तरतमना की अपेक्षा संख्यात व असंख्यात प्रकार की है। अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनन्त प्रकार की है। जैसे प्रत्येक लेण्या के उत्कृष्ट, जघन्य व मध्य ये तीन भेद होते हैं;
१.ध.पू.१६१.४८४ ।
२. ध.पु.१६.४०५, प्रा.पं.स.म.१गा . १८३-१८४.३८ ।