Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५७६ गो. सा. जौवकाण्ड
गाथा ४६३
गाथार्थ-निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, वाल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, लेश्यासाधन के लिए ये सोलह अधिकार हैं । उनके द्वारा यथाक्रम, कथन किया जाएगा ।।४६१-४६२॥
विशेषार्थ--'लेश्या का निक्षेप करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना प्रकृतलेश्या का प्रवगम नहीं हो सकता। उसका निक्षेप इस प्रकार है:-मामलेश्या, स्थापनाले पया, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । इस तरह लेश्या चार प्रकार की है। उनमें 'लेश्या' यह शब्द नामलेश्या है। सद्भावस्थापना (जैसे वृक्ष के फल खाने बाले छह व्यक्तियों का चित्र) और असद्भावस्थापना रूप से जो लेश्या की स्थापना की जाती है वह स्थापना लेश्या है। द्रव्यलेश्या और भाबलेश्या का प्रागे वर्णन किया जाएगा। निर्दशादि का स्वयं ग्रंथकार ने गाथाओं द्वारा कथन किया है। अत: यहाँ पर उसका कथन नहीं किया गया है। कुछ यहाँ भी कहा जाता है।
किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है । २ जो देखा जाता है वह वर्ण है । कषायोदय से होने वाले जीव के भाव परिणाम कहलाते हैं। एक लेश्या से पलट कर दुसरी लेश्या का होना संश्रम है, इत्यादि।
नितेश यो द्वारा कोण का निरूपण किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य ।
लेस्साणं गिद्देसा छच्चेव हवंति णियमेण ।।४९३॥ गाथार्थ लेश्या के नियम से ये छह निर्देश हैं - कृष्ण लेश्या. नील लेश्या, कापोत लेण्या, तेजोलेश्या (पीत लेश्या), पद्य लेश्या, शुक्ल लेश्या ॥४६३।।
विशेषार्थ-उदय में पाये हए कषायानुभाग के स्पर्धकों के जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक स्थापित करके उनको छह भागों में विभक्त करने पर प्रथम भाग मन्दतम कपायानुभाग का है और उस के उदय से जो कषाय उत्पन्न होती है, उसी का नाम शुक्ल लेश्या है। दूसरा भाग मन्दतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न हुई कषाय का नाम पा लेश्या है। ततीय भाग मन्द कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय तेजोलेश्या है। चतुर्थभाग तीव्र कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय कापोत लेश्या है। पांचवां भाग तीवतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय को नील लेश्या कहते हैं। छठा भाग तीव्रतम कपायानुभाग का है और उससे उत्पन्न कपाय का नाम कृष्ण लेश्या है।'
लेण्या छह ही होती हैं, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि पर्यायाथिक नय की विवक्षा से लेश्यायें असंख्यात लोकमात्र हैं, परन्तु द्रव्याथिक नय की विवक्षा से वे लेण्यायें छह ही होती हैं।
____ इन छहों लेश्याओं में से प्रत्येक अनन्तभागवृद्धि. असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणधुद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रम से छह स्थानों में पतित है। इस १. ध.पु. १६ पृ. ४८४ २. सर्वार्थसिद्धि १/७। ३. सर्वार्थसिद्धि २/२०। ४. व.पु. ७ पृ. १०४ । ५. "पज्जवणायप्पणा लेस्साम्रो असंखे. लोगमेत्तानो, दयट्टियणय गणाए पुगा लेस्साम्रो छ चेन होति ।" [ध.पु. १६ पृ. ४८५] । ६. एदारो छप्पि लेस्सानो परतभागवष्टि-मसंने भागवटि-संखे.भागवति-संग्वे. गुणा बलि-अमले. गुणव-िग्रणतगुणावष्टि कमेण पदिक्क छुट्टाणपदिदानो ।" [ध.पु. १६ पृ. ४८८] ।