Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५.७४/गो. सा. जीवकाण्ड
'गाथा ४८१-४६०
प्रवृत्ति को लेण्या कहते है। इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर केवल कषाय और केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इससे वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं, ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए क्योंकि लेण्या में योग की प्रधानता है, कषायप्रधान नहीं है, क्योंकि वह योग-प्रवृत्ति का विशेषरण है ।'
शङ्का-सया अनुवाद प्रांत लेश्यामागेणा अनुवाद में 'लेश्या' शब्द से क्या कहा गया है ?
समाधान ---जो कर्मस्कन्ध से यात्मा को लिप्त करती है, वह लेश्या है । यहाँ पर 'कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं' यह अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस अर्थ को ग्रहण करने पर सयोगकेवली को लेश्यारहितपने की आपत्ति प्राप्त होती है ।
शङ्का–यदि सयोगकेवली को लेश्यारहित मान लिया जावे तो क्या हानि है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा मान लेने पर सयोगकेवली के शुक्ल लेश्या होती है, इस वचन का व्याघात हो जाता है।
शङ्कर ... 'लेश्या' योग को कहते हैं, अथवा कषाय को, या योग और कषाय दोनों को कहते हैं ? इनमें से आदि के दो विकल्प अर्थात् योग या कषाय रूप तो लेपया मानी नहीं जा सकती, क्योंकि वैसा मानने पर योगमार्गणा और कषायमार्गणा में ही उसका अन्तर्भाव हो जाएगा। तीसरा विकल्प भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह भी प्रादि के दो विकल्पों के समान है।
समाधान:-शंकाकार ने जो तीन विकल्प उठाये हैं, उनमें से पहले और दूसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त नहीं होते, क्योंकि लेश्या को केवल योगरूप और केवल कषाय रूप माना ही नहीं। उसी प्रकार तृतीय विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि योग और कषाय इन दोनों का किसी एक में अन्तर्भाव मान लेने पर विरोध प्राता है (दो का किसी एक में अन्तर्भाव नहीं हो सकता)। यदि कहा जाय कि लेण्या को दो रूप मान लिया जाये जिससे उसका योग और कषाय इन दोनों मार्गणाओं में अन्तर्भाव हो जाए, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मलेपरूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाए कि एकता को प्राप्त हुए योग और कषाय रूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अन्तर्भाव हो जाएगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुई लेश्या की, केवल किसी एक के साथ समानता मान लेने में विरोध पाता है।
शङ्का-योग और कषाय के कार्य से भिन्न लेश्या का कार्य नहीं पाया जाता, इसलिए उन दोनों से भिन्न लेण्या नहीं मानी जा सकती ?
समाधान नहीं, क्योंकि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के पालम्बनरूप प्राचार्यादि बाह्य पदार्थ के सम्पर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल -. . .-. . - १. भ्रबल पृ. १ पृ. १४६, पु. १६ पृ. ४८५, स. सि. २/६, रा.वा. २६८; पंचवास्तिकाय गा. ११६ टीका । २, घवल पू.१ पृ. १४६-१५० । ३. धवल पू. १ पृ. ३८६ ।