Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
५७२/गो, सा. जीयकाण्ड
गाथा४८७-४८८
अनवस्थादोष आता है। दूसरे, पर्याय की पर्याय मानने से पर्याय द्रव्य हो जाती है। इस प्रकार पर्याय की पर्याय मान कर भी 'केवलदर्शन' केवलज्ञान रूप नहीं हो सकता।
यदि कहा जाय कि केबलदर्शन अव्यक्त है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो आवरण से रहित है और सामान्य विशेषात्मक अन्तरंग पदार्थ के अवलोकन में लगा हुआ है ऐसे केवलदर्शन को अव्यक्त रूप स्वीकार करने में विरोध पाता है। यदि कहा जाय कि केवल दर्शन को व्यक्त स्वीकार करने से केवल ज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों की समानता (एकता) नष्ट हो जाएगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्पर के भेद से इन दोनों में भेद है। दूसरे, यदि दर्शन का सद्भाव न मानाजाय तो दर्शनावरण के बिना सात ही कर्म होंगे, क्योंकि प्रावरण करने योग्य दर्शन का प्रभाव मानने पर उसके आवारक कर्म का सद्भाव मानने में विरोध आता है।'
चक्षुदर्शनी आदि जीवों की संख्या जोगे चउरक्खाणं पंचक्खाणं च खोरणचरिमाणं । चक्खूरामोहिकेवलपरिमाण तारण रगाणं च ॥४८७॥ एइंदियपहदीणं खीएकसायंतणंतरासीणं । जोगो प्रचक्खुदंसरणजीवाणं होदि परिमारणं ।।४।।
गाथार्थ-क्षीणकषाय गुणस्थान तक जितने चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीव हैं उनका जोड़ रूप चक्षुदर्शनी जीवों की संख्या है। जितनी अवधिज्ञानियों की संख्या है उतने ही अवधिदर्शनी जीव हैं और जितने केवलज्ञानी हैं उतने ही. केवलदर्शनी जीव हैं ।।४८७॥ एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय तक जितने जीव हैं उनके जोड़ स्वरूप अचक्षुदर्शनियों को संख्या है ॥४८८।।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शनी द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं, कालप्रमाण को अपेक्षा असंख्यातासंख्यात प्रवसर्पिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत होते हैं, क्षेत्र की अपेक्षा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग का वर्ग करके उसका जगत्प्रतर में भाग देने पर चक्षुदर्शनी जीवों की संख्या प्राप्त होती है ।
यदि चक्षदर्शनावरण क्षयोपशम से उपलक्षित चतुरिन्द्रियादि अपर्याप्त राशि का ग्रहण किया जाय तो प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग से जगत्प्रतर अपहत होता है, परन्तु उसे यहाँ नहीं ग्रहण किया। क्योंकि चक्षु-इन्द्रिय के प्रतिधात के नहीं रहने पर चक्षुदर्शनोपयोग के योग्य चक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम वाले जीव चक्षदर्शनी कहे जाते हैं, इसलिए यहाँ पर लब्ध्यपर्याप्त जीवों का ग्रहण नहीं होता है । लब्ध्यपर्याप्त जीव चाइन्द्रिय की निष्पत्ति से रहित होते हैं, इसलिए उनमें चक्षुदर्शनोपयोग से युक्त चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशम नहीं पाया जाता है । तथा चक्षुदर्शन वाले जीवों की स्थिति संख्यात सागरोपम मात्र होती है, यह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वहां पर क्षयोपशम की प्रधानता स्वीकार की है। इसलिए चक्षुदर्शनी जीवों का प्रबहारकाल (भागाहार) प्रतरांगुल का संख्यातवाँ भाग मात्र होता है, यह कथन सिद्ध होता है। क्योंकि यहाँ पर चक्षुदर्शनी जीवों के
१. जयधवल पु. १ पृ. ३५०-३५६ । २. ध.पु. ७ पृ. २६०-२६१ सूत्र १४०-१४३ ।
३. ध.पु. ७ पृ. २६१ ।