Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५७० / गो. सा. जी काण्ड
गाथार्थ - जो चक्षु इन्द्रिय के द्वारा प्रकाशित होता है अथवा दिखाई देता है वह चक्षुदर्शन है। शेष इन्द्रियों से जो प्रतिभास होता है वह प्रदर्शन है ।।४८४ ॥ परमाणु को श्रादि लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त भूर्त पदार्थों को जो प्रत्यक्ष देखता है वह अवधिदर्शन है ||४८५॥
गापा ४८४-४६५
विशेषार्थ - शङ्का - इन सूत्र वचनों में दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थ रूप से की गई है ।' अतः दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ (आत्मा) है, इसका इन सूत्रवचनों द्वारा खंडन हो जाता है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा ।
शङ्का - वह परमार्थ कौनसा है ?
समाधान- 'जो चक्षुत्रों को प्रकाशित होता है अर्थात् दिखता है प्रथवा श्रख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है । इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान के पूर्व ही जो सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है और जो चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त रूप है, वह चक्षुदर्शन है ।
शङ्का -- उस चक्षुइन्द्रिय के विषय से प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्ति में चक्षुइन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान-- - नहीं, बालजनों को ज्ञान कराने के लिए अन्तरंग में बहिरंग पदार्थों के उपचार से चक्षुत्रों को दिखता है, वही चक्षुदर्शन है। ऐसा प्ररूपण किया गया है ।
शङ्का--गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ?
समाधान नहीं करते, क्योंकि वैसा करने में तो पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है ।
गाथा ४८४ के उत्तरार्ध का शब्दार्थ इस प्रकार है- जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है उससे जो ज्ञान होता है उसे चक्षुदर्शन जानना चाहिए । इसका परमार्थ चक्षुइन्द्रिय के अतिरिक्त शेष इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्त्रशक्ति का अक्षुदर्शन की उत्पत्तिका निमित्तभूत जो सामान्य से संवेद या अनुभव होता है वह प्रचक्षुदर्शन है ऐसा कहा गया है । 3
द्वितीय गाथा (४८५) का अर्थ इस प्रकार है- परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्तिक द्रव्य हैं उनको जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है, ऐसा जानना चाहिए।' इसका परमार्थ- परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गल द्रव्य स्थित है, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्तिविषयक उपयोग होता है, वही धिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता | "
१. धवल पु. ७ पृ. १०० । २. घवल पु. पु. १००-१०१ । ३. घवल पु. ७ पृ. १०१ ४. धवल पु. ७ पू. १०२