Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६८ / गो, सा, जीव काण्ड
गाथा ४८२-४-३ के उत्पादक प्रयत्न की पराधीनता नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोग वाले केवली के प्रदर्शनत्व का प्रसंग पाता है।'
प्रागे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न, उस रूप अथवा निज आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन है। उसके अनन्त र बाह्य विपय में विकल्प रूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है। जैसे कोई पुरुष पहले घटविषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिए होता है। तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर स्वरूप में जो प्रयत्न अवलोकन-परिच्छेदन करता है, वह दर्शन है । उसके अनन्तर 'यह पट है ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विषय रूप से पदार्थ के ग्रहण रूप जो विकल्प होता है, वह ज्ञान है ।
शिष्य प्रश्न करता है यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर-पदार्थों को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिक के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, ऐसा दूषण प्राता है ?
समाधान - नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन पृथक-पृथक दो गुण नहीं हैं। इस कारण उन नैयायिकों के मत में 'आत्मा को जानने के प्रभाव रूप' दूषण माता है, किन्तु जैन सिद्धान्त में प्रात्मा ज्ञान गुण से पर-पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से प्रात्मा स्व को जानता है, इस कारण जैनमत में 'प्रात्मा को न जानने का दूषण नहीं पाता है ।
शङ्का—यह दूषण क्यों नहीं पाता?
समाधान-जैसे एक ही अग्नि जलाती है अतः वह दाहक है और पकाती है, इस कारण वह पाचक है, विषय के भेद से दाहक व पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है। उसी प्रकार अभेद नय से चैतन्य एक ही है, भेद नय की विवक्षा में, जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है तब उसका नाम 'दर्शन' है ; और फिर जब वह पर-पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है। इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है।
तर्क के अभिप्राय से (पर-मतों की अर्थात् पर-मत बालों को समझाने की दृष्टि से) सत्तावलोकन रूप दर्शन है, ऐसा व्याख्यान है। सिद्धान्त के अभिप्राय से आत्मावलोकन रूप दर्शन है।
यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह का त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता को धारण करके व्याख्यान करता है, तो तर्क-अर्थ व सिद्धान्त-अर्थ दोनों ही सिद्ध होते हैं । तर्क में मुख्यता से अन्य मत्तों का व्याख्यान है। अन्य मत वाले 'पात्मा को ग्रहण करनेवाला दर्शन है' इस बात को नहीं समझते । तब प्राचार्यों ने प्रतीति कराने के लिए स्थूल व्याख्यान से 'बाह्य विषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम दर्शन स्थापित किया । बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है उसका नाम ज्ञान स्थापित किया । अत: दोष नहीं है, सिद्धान्त में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान है, इसलिए सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर प्राचार्यों ने 'जो आत्मा का ग्राहक है उसे दर्शन कहा है। अतः इसमें भी दोष नहीं है ।
१. धवल पू. ६ . ३२-३३ । २. ननयसंग्रह गा. ४४ की टीका। ३. वृहद्रव्यसंग्रह गा. ४४ की टीका। ४. वृहद्रव्यसंग्रह मा. ४४ को टीका । ५. वृहद्रव्यमग्रह गा. ४४ की टोका ।