Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४८६ ४६०
प्रमाण के कथन में चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों की प्रधानता स्वीकार की है। "
प्रदर्शनी जीव मिध्यादृष्टि (एकेन्द्रिय) से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं, क्योंकि अचक्षुदर्शन के क्षयोपशम से रहित छद्मस्थ जीव नहीं पाये जाते हैं । इन बारह गुणस्थानवर्ती जीवों की जितनी संख्या है, वहीं प्रचक्षुदर्शनियों का प्रमाण है, जो अनन्तानन्त है ।
दर्शनियों का प्रमाण अवधिज्ञानियों के समान है, क्योंकि अवधिदर्शन को छोड़कर अवधिज्ञानी जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिए दोनों का प्रमाण समान है ।
श्यामागं / ५७३
केवलदर्शनी जीव केवलज्ञानियों के समान है, क्योंकि केवलज्ञान से रहित केवलदर्शनी जीव नहीं पाये जाते हैं |*
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में दर्शनमार्गणा नामका चौदहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१५. लेश्यामार्गणाधिकार
लेण्या का लक्षण
च ।
पिपरहएव जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुरगुजा रायक्वादा ॥१४८६६ ॥ * जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयानुरंजिया होई । तत्तो दोष्णं कजं बंधचउक्कं समुद्दिट्ठ ॥४०॥
गाथार्थ - जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके अधीन करता है चह लेश्या है, ऐसा लेश्या के स्वरूप को जानने वाले गणधरदेवादि ने कहा है || ४८६ ॥ योगप्रवृत्ति श्या है । जब योगप्रवृत्ति कषायोदय से अनुरंजित होती है तब योग-प्रवृत्ति और कषायोदय इन दोनों का कार्य बंध चतुष्करूप परमागम में कहा गया है ।।४६०॥
१. ध. पु. ३ पृ. ४५४ ।
पृ. ४५६ सूत्र १६१ । ५.
विशेषार्थ - जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है वह लेश्या है । जो आत्मा और प्रवृत्ति (कर्म) का संश्लेष सम्बन्ध कराने वाली है, वह लेश्या है । इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता, क्योंकि यहाँ पर प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची ग्रहण किया है । " यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती तो क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के प्रभाव का प्रसंग श्राता, किन्तु शरीर नाम कर्मोदय से योग भी तो लेश्या है क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेण्या मानने में कोई विरोध नहीं प्राता । अथवा कपाय से अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोग की
पु.७ . ७, पु. ८ पृ. ३५६
।
२. घ. पु. ३ पृ. ४५४ ।
३. घ. पु. ३.४५५-४५६ मूत्र १६० १ ४. घ पु. ३ धवल पु. १ पृ. १५० प्रा. पं. सं. अ. १ गा. १४२ । ६. धवल पु. १ पृ. १४९ :
७. धवल पु. ७ पृ. १०५ ।