Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४३८-४४०
जो ऋजु प्रर्थात् प्रगुण होकर बिचारे गये व सरल रूप से ही कहे गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान है । यह नहीं बोले गये, आधे बोले गये और विपरीत रूप से बोले गये अर्थ को नहीं जानता है, क्योंकि जिस मन:पर्यय ज्ञान में मतिऋजु है वह ऋजुमतिमन:पर्यय ज्ञान है, ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है ।"
शङ्का - ऋजुवचनगत मन:पर्ययज्ञान को ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान संज्ञा नहीं प्राप्त होती ? समाधान- नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी ऋजुमन के बिना ऋजु वचन की प्रवृत्ति नहीं होती । शङ्का - चिन्तित अर्थ को कहने पर यदि जाना जाता है तो मन:पर्यय ज्ञान को श्रुतज्ञान प्राप्त
होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा ? ऐसा चिन्तन करके ऐसा ही कथन करने पर यह ज्ञान चूंकि प्रत्यक्ष से राज्यपरम्परा की मर्यादा और राजा की आयुस्थिति को जानता है, इसलिए इस ज्ञान को तान मानने में विरोध आता है ।
जो ऋजुभाव से विचार कर एवं ऋरूप से अभिनय करके दिखाये गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि ऋजुमति के बिना काय की क्रिया के ऋजु होने में विरोध आता है।
शङ्का - यदि मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय, नोइन्द्रिय और योग आदि की अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है तो वह दूसरों के मन, वचन और काय के व्यापार की अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान की उस प्रकार से उत्पत्ति देखी जाती है । शङ्का ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की यह विचित्रता है।
शङ्का - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन से प्रचिन्तित, वचन से अनुक्त और अनभिनीत अर्थात् शारीरिक चेष्टा के अविषयभूत अर्थ को क्यों नहीं जानते हैं ?
समाधान- नहीं जानते, क्योंकि उसके विशिष्ट क्षयोपशम का प्रभाव है ।
दूसरे की मति में स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है। विपुल है मति जिसकी वह विपुलमति कहा जाता है । 3
जो विपुल मतिमनः पर्यय ज्ञान है वह छह प्रकार का है— ऋजुमनोगत को जानता है, प्रमृजुमनोगत को जानता है, ऋजुवचनगत को जानता है, अनृजुवचनगत को जानता है, ऋजुकायगत को जानता है और अनुजुकायगत को जानता है ।
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९. धवल पु. १३ पृ. ३३० ॥
२. चवल पु. १३ पृ. २३१
३. घ. पु. ६ पृ. ६६
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