Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
तिर्यक क्लेश-परिणज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम् ।
कथा-प्रसंग-प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥७६॥ रत्नकरण्ड थावकाचार]
—तिर्यचों के वाणिज्य की तथा क्लेशात्मक वाणिज्य की या तिर्यचों के क्लेश तथा क्रयविक्रयादि रूप वाणिज्य की अथवा तिर्यचों को वलेशकारी बाणिज्य की, प्राणियों के वध रूप हिसा की, कृष्यादि सावद्य प्रारम्भ की, ठगने रूप विषयों की कथानों के प्रसंग हेड़ने को पापोपदेश नाम का अनर्थवण्ड है । इसका त्याग अनर्थदण्डवत है।
विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पगोविनां पुंसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिवपि नव वक्तव्यम् ।।१४२॥ पुरुषार्थसिद्धय पाय] -विद्या, ब्यापार, लेखनकला (मुनीम, क्लर्क), खेती, नौकरी और कारीगरी से जीविका करने वाले पुरुष को पाप का उपदेश मिले ऐसा वचन किसी समय नहीं बोलना चाहिए।
बिना प्रयोजन वृक्ष आदि को छेदना, भूमि को कूटना, पानी सींचना आदि पापकार्य प्रमावचरित नाम का अनर्थदण्ड है।' इसका दूसरा नाम प्रमादचर्या भी है।
क्षिति-सलिल-दहन-पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं ।
सरणं सारणमपि च प्रमावचाँ प्रभाषन्ते ॥५०॥[रत्नकरण्डश्रावकाचार] —पृथ्वी, जल, अग्नि तथा पवन के व्यर्थ आरम्भ को अर्थात् बिना प्रयोजन पृथ्वी के खोदने को, जल के छिड़कने, अग्नि जलाने-बुझाने को, पंखे से पवन ताड़ने को, व्यर्थ के वनस्पतिच्छेद को और व्यर्थ के पर्यटन को प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहते हैं । इसका त्याग अनर्थदण्डव्रत है।
भूखननवृक्षमोट्टनशावलवलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दलफल-कुसुमोच्चयानपि च ॥१४३॥ -पृथ्वी खोदना, वृक्ष या घास उखाड़ना, अतिशय घासबाली जगह रोंदना, पानी सींचना प्रादि और पत्र, फल-फूल तोड़ना भी बिना प्रयोजन न करें। यह तीसरा प्रमाश्चर्या-अनर्थदण्ड व्रत
द
विष, कांच, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिसाप्रदान नाम का अनर्थदह है।
परशु-कृपाण-खनित्र-ज्वलनायुध-शुङ्गि-शृङ्खलावीनाम् ।
वघहेतूनां दानं, हिंसादानं अवंति बुधाः ॥७७॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार]
- - फरसा, बलवार, गैती, कुदाली, अग्नि, प्रायुध (छुरी, कटारी, लाठी, तलवार आदि) बिष, सांकल, इत्यादि वध के कारणों का अर्थात् हिंसा के उपकरणों का जो निरर्थक दान है उसको ज्ञानीजन हिंसादान नाम का अनर्थदण्द कहते हैं । इसका त्याग अनर्थदण्डवत है।
१. सर्वार्थ सिद्धि पा२१ ।