Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा४७६-४७७
संयममार्गणा/५५६ न्यश्चित्ते करोत्यन्यच्चेष्टायामन्यदेव हि ।
मायावी तस्य कि शोचमुच्यते दुष्टदुर्मतेः ॥८॥[सिद्धान्तसारसंग्रह प्र.४] —मायावी कपटी मनुष्य मन में अन्य विचार करता है तथा शरीर से और वाणी से अन्य चेष्टा करता है। इसलिए वह दुष्ट दुर्बुद्धि क्या पवित्रता धारण कर सकता है ? मायावी महान अपवित्र है। मायावी पुरुष को माया शल्य नित्य पीड़ा देती रहती है। अतः वह अहिंसादि प्रतों का पालन नहीं कर सकता ।
धर्मजिप्रक्षुभिः हेयं मिथ्यात्वं सर्वथा तपोः । सहानस्थितिनित्यं विरोधो यावता महान् ॥४/११॥ मिथ्याशल्यमिवं युष्टं यस्य देहादनिःसृतम् ।
तस्यापदाभिभूतस्य निवृत्तिन कदाचन ॥४/१२॥ [सिद्धान्तसारसंग्रह] • धर्मग्रहण के इच्छुक पुरुषों को मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करना चाहिए। क्योंकि धर्म और मिथ्यात्व इन दोनों में सहानबस्थिति नामका महान् विरोध हमेशा से है । एक स्थान में एकाश्रय में दो विरोधी पदार्थ न रहना सहानवस्था दोष है। जैसे शीत और उष्ण, सर्य और नकुल । जहाँ धर्म रहता है वहाँ मिथ्यात्व नहीं रहता। जहाँ मिथ्यात्व रहता है वहाँ धर्म नहीं रहता । यह मिथ्यात्व शल्य जिसकी देह से नहीं निकल गया ऐसे मिथ्यात्व से प्राप्त हुए दुःखों से पीड़ित पुरुष को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
भिदान शल्य भी प्राणियों को दःखद होने से त्याज्य है। प्रती पुरुपों को यह शल्य धारण करने योग्य नहीं है, क्योंकि यह सब ब्रतों का नाश करती है । प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से निदान • दो प्रकार का है। प्रशस्त निदान के भी दो भेद हैं उनमें से एक संसार निमित्तक प्रशस्त निदान और दूसरा मोक्ष निमित्तक प्रशस्त निदान । कर्मों का नाश, बोधि (रत्नत्रय प्राप्ति), समाधि (धर्मध्यान, शुक्लध्यान) संसार-दुरखों का नाश आदि को चाहने वालों के यह प्रशस्त निदान मुक्ति का कारण है। जिनधर्म की प्राप्ति के लिए योग्य देश (आर्य खण्ड), योग्यकाल (दुःखमासुखमा काल), भव (जैन का उच्चकुल) क्षेत्र योग्य (जैनधर्मी श्रावकों का नगर) और शुभ-भाव व वैभव चाहने वालों को यह संसार का कारण प्रशस्त निदान होता है, क्योंकि संसार बिना ये देश, काल, क्षेत्र, भव, भाव और ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होते। प्रथम प्रशस्त निदान पवित्र-अद्वितीय-अनन्त सुखस्थान देने वाला अर्थात् मोक्षप्राप्ति कराने वाला है। द्वितीय प्रशस्त निदान किंचिद् दुःख देने वाला है, क्योंकि अन्य भव में जिनधर्म की प्राप्ति के लिए योग्य देश-काल-क्षेत्र-भव-भाव और ऐश्वर्य चाहने से वह प्रशस्त निदान किचित् हेय है। अप्रशस्त निदान भी भोगहेतुक और मानहेतुक होने से संसार का कारण है, निन्द्य है और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश होने में बाधक है।' इस प्रकार माया शल्य, मिथ्याशल्य और अप्रशस्त निदान शल्य रहित पुरुष ही व्रती हो सकता है। प्रशस्तनिदान साक्षात् व परम्परया मोक्ष का कारण होने से त्याज्य नहीं है। सम्यग्दृष्टि देव के निरन्तर यह बांछा रहती है कि कब मरकर मनुष्य बनू और सपम धारण करके मोक्षसुख प्राप्त करूँ। संयम के योग्य देश-काल-क्षेत्र-भब और भाव-प्रापिट की बाछा भी संयमवांछा में निहित है अर्थात् अन्तर्लीन है।
१. सिवान्तसार संग्रह ४।२४५-२५२ ।