Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६४ / गो. सा. जीमकाण्ड
गामा ४८२-४८३
होता है । क्योंकि वैपुल्यवाची अन्तर्मुहूर्त का यहाँ ग्रहण है ।' प्रत संदृष्टि की अपेक्षा कथन इस प्रकार है-
बत्तीस सोलस चत्तारि जाण सदसहिदमदुवीलं च । एदे श्रवहारत्या हवंति संदिद्विणा विट्ठा ॥३७॥२ पट्टी च सहस्सा पंचसया खलु छउत्तरा तोसं । पलिदोवमं तु एवं विधारण संविट्टिणा दिट्ठ ॥३८॥ पंचसय वारसुतरमुद्दिलाई तु लद्धदव्बाई
ין
संयतासंयत सम्बन्धी श्रवहारकाल का प्रमारण १२८ जानना चाहिए। पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस ( ६५५३६) को पत्योपम माना गया है। संयतासंयत जीवराशि का प्रमाण (६५५३६ ÷ १२८ ) = ५१२ जानना चाहिए ।
समस्त संयतों की संख्या ८१६६६६६७ है और संयतासंयतों की संख्या पस्योपम का प्रसंख्यातव भाग है । इन दोनों को मिलाने से म६६६६६६७ अधिक पत्योपभ का असंख्यातवाँ भाग होता है । इस संख्या को अनन्त संसारी जीवराशि में से घटाने पर असंयतों का प्रमाण प्राप्त होता है, जो अनन्त है ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में संयममार्गणा नाम का तेरहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१४. दर्शनमार्गणाधिकार
दर्शन सामान्य का लक्षण
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । प्रविसेसर असणमिदि भादे समये ॥४८२||४
भावारां सामाविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं । वहीर गहरणं जोवेरा य दंसणं होदि ॥४८३ ॥
गाथार्थ - वस्तुओं का आकार न करके व पदार्थों में विशेषता न करके जो सामान्य का ग्रहण किया जाता है, उसे शास्त्रों में दर्शन कहा है ||४८२ ।। सामान्य विशेषात्मक निज स्वरूप पदार्थ का जीव के द्वारा जो वर्णन रहित ग्रहण है, वह दर्शन है ||४८३ ||
विशेषार्थ - 'जं मामगं गहरणं' इस सूत्र में 'सामान्य' शब्द का प्रयोग आत्म-पदार्थ के लिए
१. "संजदामंजदा दक्ष्यमाणे केवडिया ? १३६|| पलिदोवमस्म श्रसंखेज्जदि भागो ॥१३७॥ एहि पलिदोषमम वहिरदि श्रतो ।। १३८ ॥ एत्थ तो मुहुत्तमिदि बुत्ते "असोज्जावलिया त्ति घेत्तव्वं ।" [घ. ७ पृ. २५९ ] ४. धवल पु. १ पृ. १४६, जयधबल पु. १ पृ. ३६० प्रा. पं. वृहद द्रव्य संग्रह गा. ४३; धवल पु. ७ पृ. १००।
३. घ. पु. ३ पृ.
२. ध. पु. ३ पृ. ८७ । सं. ग्र. १गा. १३५