Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ४७८-४७६ बाहोषु दशषु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः ।
स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥१४५॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
-नोद प्रकार की मह बरनी में क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि में) ममत्व को छोड़कर निर्ममभाव में रत रहता है, स्वात्मस्थ है और परिग्रह की आकांक्षा से निवृत्त हुआ सन्तोषधारण में तत्पर है वह परिग्रह से विरक्त नौवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमा में विवाह आदि कार्यो की अनुमति का त्याग होता है।
अनुमतिरराम्मे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥१४६॥ [रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
-जिसकी निश्चय से प्रारम्भ में व परिग्रह में और बाह्य कार्यों में अनुमति नहीं होती वह रागादि रहित बुद्धि का धारक अनुमतिविरत नामक दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। 'ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा में अपने उद्देश्य से बनाये हुए पाहार का परित्याग होता है।
गृहतो मुनिवनमित्या गुरूपकण्ठे वतानि परिगृह्य ।
भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७॥[रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
--जो श्रावक घर से मुनिवन को जाकर और गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण करके तपस्या करता हुआ भैक्ष्य भोजन करता है और वस्त्रखण्ड का धारक होता है, वह उद्दिष्टत्याग नाम की ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक श्रावक होता है।
असंयत का स्वरूप जीवा चोद्दस भेया इंदियविसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु रणव विरया असंजदा ते मुणेदबा ॥४७८।।' पंचरसपंच-यण्णा दो-गंधा प्रदु-फास सत्त-सरा।
मरणसहिदट्ठावीसा इंदिय-विसया मुणेदव्या ॥४७६॥ गाथार्थ-~-जीब समास चौदह प्रकार के हैं और इन्द्रियों के विषय अट्ठाईस प्रकार के होते हैं। जो जीव इनसे विरत नहीं हैं, उनको असंयत जानना चाहिए ।।४७८।। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्ग, सात स्वर, मन का एक; इस प्रकार इन्द्रियों के विषय अट्ठाईस जानने चाहिए ।।४७६||
विशेषार्थ—सूक्ष्मैकेन्द्रिय, बादरकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संजी पंचेन्द्रिय, असंजी पंचेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त व अपर्याप्त इस प्रकार चौदह जीवसमास होते हैं । इनका विशद कथन जीवसमास अधिकार में किया जा चुका है। वहाँ से देख लेना चाहिए। इन चौदह जीवसमासों की रक्षा करना संयम है। मीठा, खट्टा, कपायला, कडुआ, चरपरा यह पाँच प्रकार का रस; सफेद,
१. चारित्र पाहुइ गाथा २१ की टीका। २. धवल पु. १ गाथा १६४ पृ. ३७३ ; प्रा.पं.मं.अ. १ गाथा १३७ ।