Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७ ___ तीसरी सामायिक प्रतिमा में प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायंकाल एक मुहूर्ततक सामायिक करना चाहिए।
चतुरावर्तत्रितयश्चतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः। सामयिको द्विनिषधस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ॥१३॥
—जो श्रावक तीन-तीन पात्रों के चार बार किये जाने की, चार प्रणामों की, अर्व कायोत्सर्ग की तथा दो निषद्यानों की व्यवस्था से व्यवस्थित और यथाजात रूप में स्थित हुअा, मन वचन काय रूप तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक तीनों संध्यामों (पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न) के समय वन्दनाक्रिया करता है, वह सामायिक नामका तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक है।
चौथी प्रोषधप्रतिमा में प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को शक्ति अनुसार उपवास करना चाहिए।
पर्वदिनेषु चतुष्यपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगृह्य ।
प्रोषध-नियम-विधायी प्रणधिपरः प्रोषघाऽनशनः ।।१४०॥[ रत्नकरण्ड श्रावकाचार] -प्रत्येक मास के चारों ही पर्व दिनों में अर्थात् प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी को, अपनी शक्ति को न छिपाकर, शुभ भावों (ध्यान, स्वाध्याय. पूजन आदि) में रत हुआ एकाग्रता के साथ प्रोषध के नियम का विधान करता है अथवा नियम से प्रोषधोपवास धारण करता है, वह प्रोषधोपवास का धारक चतुर्थश्रावक होता है। पांचवों सचित्त-त्याग प्रतिमा में सचित्त-वस्तुओं के भक्षण का त्याग होता है।
मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसन-बीजानि ।
नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो क्यामूर्तिः।।१४१॥ | रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
- जो दयालु (गृहस्थ) मूल, फल, शाक, शाखा (कोपल), करीर (गांठ), कन्द, फूल और बीज इनको कच्चे नहीं खाता वह 'सचित्तविरत' पद का अर्थात् पाँचवीं प्रतिमा का धारक श्रावक है। छठी रात्रिभुक्ति-विरति प्रतिमा में रात्रि के भोजन करने कराने का त्याग अथवा दिन में ब्रह्मचर्य की रक्षा करना होता है ।
प्रश्न पानं खाधं लेह्म नाऽश्नाति यो विभवम् ।
स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ।।१४२॥] रत्नकरण्डश्रावकाचार
—जो धात्रक रात्रि के समय अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों को नहीं खाता है वह प्राणियों में दया भाव रस्त्रने वाला रात्रिभुक्ति विरत नाम के छठे पद का धारक होता है।
यदि उसका छोटा पुत्र भूख से रोता रहे तो भी छठी प्रतिमाधारी रात्रि में न तो स्वयं भोजन
१. चारित्रपाड़ गाथा २१ टीका। २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १३६। टीका। ४. चारित्रपाहड़ गाथा २१ टीका। ५. चारित्रपाड़ गाथा २१ टोका।
३. चारित्रपाहुड़ गाथा २१