Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
५५८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
समाधान-व्रतों के रक्षण को 'शील' कहते हैं । शील का लक्षण इस प्रकार है
—
संसाराशतिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् ।
गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥ ४१ ॥ । [ श्रमि श्रावका परि. १२] यद् गृहीतं व्रतं पूर्वं साक्षीकृत्य जिनान् गुरून् ।
तद् व्रताखंडनं शीलमिति प्राहुर्मुनीश्वराः ।।७८ ।। [पूज्यपाद श्रावकाचार ]
-- गुरु को साक्षीपूर्वक पहले ग्रहण किये गये व्रतों का खण्डन नहीं करना प्रथवा रक्षण करना शील कहलाता है ।
शङ्का - शल्य किसे कहते हैं ?
समाधान- शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्' यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है । शल्य का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु । जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ाकर भाव है, वह शत्य शब्द से लिया है। जिस प्रकार कॉटन आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होता है, उसी प्रकार शरीर और मन सम्बन्धी बाधा का कारण होने से कर्मोदयजनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं । यह शल्य तीन प्रकार की है मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य । माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगने की वृत्ति यह माया शल्य है। भोगों की लालसा निदान शल्य है और प्रतत्त्वों का श्रद्धान मियादर्शन शल्य है । इन तीनों शल्यों से जो रहित है वही निःशल्य व्रती कहा जाता है ।
--
शङ्का - शल्य न होने से निःशल्य होता है और व्रतों को धारण करने से व्रती होता है । शल्यरहित होने से व्रती नहीं हो सकता। जैसे देवदत्त के हाथ में लाठी होने से वह छत्री नहीं हो सकता ?
समाधान-व्रती होने के लिए दोनों विशेषणों से युक्त होना आवश्यक है। यदि किसी ने शल्यों का त्याग नहीं किया और केवल हिंसादि दोषों को छोड़ दिया तो वह व्रती नहीं हो सकता । यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्यों का त्याग करके बतों को स्वीकार किया हो। जैसे जिसके यहाँ बहुत घी-दूध होता है वह गायवाला कहा जाता है। यदि उसके घी-दूध नहीं होता और गायें हैं तो वह गायवाला नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो सत्य है, व्रतों के होने पर भी वह व्रती नहीं हो सकता, किन्तु जो निःशल्य है, वह व्रती है।"
शरीरमानसीं बाधां कुकर्मोदयादि यत् । मायामिध्यानिदानादिभेदतस्तस्त्रिधा मतम् ॥५॥ [ सिद्धान्तसारसंग्रह प्र. ४ ]
- कर्मों के उदय आदि के कारण शारीरिक और मानसिक पीड़ा देने वाली माया, मिथ्या और निदान तीन प्रकार की शल्य है ।
१. सर्वार्थमिद्धि ७।१८।