Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाचा ४७६-४७७
मंयममार्गणा ! ५५५ कारण है कि कर्म भूमिया महिलाओं के तोन होन संहनन होने से उनके मोक्ष का निषेध किया गया
शङ्का-अभक्ष्य बाईस हैं । फिर यहाँ पाँच ही अभक्ष्य क्यों कहे गये ?
समाधान--पाँच अभक्ष्य नहीं कहे गये । किन्त रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पांच प्रकार के अभक्ष्य कहे गये हैं। अभक्ष्य पदार्थ बहुत है किन्तु वे सब इन पाँच प्रकार के अभक्ष्यों में गर्भित हो जाते हैं। जिनवाणीसंग्रह आदि पुस्तकों में जिन बाईस अभक्ष्यों का नामोल्लेख है, उनके अतिरिक्त भी अभक्ष्य हैं। इनमें अनिष्ट और अनुपसेव्य अभक्ष्यों का नाम ही नहीं है। किसी भी दिगम्बर जैन आर्ष ग्रन्थ में इन बाईस अभक्ष्यों का कथन नहीं मिलता। सम्भवतः प्रन्य सम्प्रदाय में इन बाईस अभटयों का कथन हो।
अतिथिसंविभाग शिक्षानत-संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो पाता है वह अतिथि है । या जिसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं हो, वह अतिथि है। अनियतकाल में जिसका आगमन हो वह अतिथि है। इस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथि-संविभाग है । वह चार प्रकार का है-भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय (रहने का स्थान)। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषधि की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म में श्रद्धा रखते हुए अतिथि का निवासस्थान भी देना चाहिए।'
सल्लेखना-श्री कुन्दकुन्द आदि प्राचार्यों ने सल्लेखना को भी शिक्षावत कहा है और तत्त्वार्थसूत्र में भी सहलेखनां जोषिता' द्वारा सल्लेखना का उपदेश दिया है अतः सल्लेखना का कथन किया जाता है— भले प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना (कृशकरना) सल्लेखना है। अर्थात् बाह्य शरीर का और पाभ्यन्तर कषायों का लेखन करना अर्थात् कुश करना सल्लेखना है। बाह्य शरीर का और आभ्यन्तर कषाय का काय और कषाय को उत्तरोत्तर पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए, भले प्रकार से लेखन करना कृश करना सल्लेखना है। मरण के अन्त में होने वाली इस सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला गृहस्थ होता है।
शङ्खा- सल्लेखना में अयमे अभिप्रायपूर्वक प्रायु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए सल्लेखना यात्मधात है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। रागद्वेष-मोह से युक्त प्रमाद के वश होकर जो कोई विष, शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके अपना घात करता है, वह आत्मघाती है। परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं इसलिए उसे अात्मघात का दोष नहीं प्राप्त होता । दूसरे, मरण किसी को भी इष्ट नहीं है । जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुत्रों के देन, लेन और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है। फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण उपस्थित होने पर यथाशक्ति उनको दूर करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हो सके तो विक्रेय वस्तुओं को नाश से रक्षा करता है।
१. गो. क. गा. ३२ । २. प्रवचनसार (शान्तिवीरनगर) पृ. ५३४.३५-३६ । ३. सर्वामिद्धि ७२१ ।