Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५५२/गो. सा. जीवका
गाथा ४५६-४७७
आसमयमुक्तिमुक्त पंचाऽधानामशेषभावेन । सद सामगि: सन्नयिक साद शंसन्ति ॥७॥ मूर्ध्वह-मुष्टि-वासो-बन्धं पर्यकुबन्धन चाऽपि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥६॥ एकान्ते सामयिक निक्षिपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वाऽपि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥६६ व्यापार-वमनस्याद्विनिवृत्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिक बनीयादुपवासे कभुक्तं वा ॥१०॥ सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् । व्रतपंचक-परिपूरण-कारणमवधान-युक्त न ॥१०१॥ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
घेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तवा याति यतिभावम् ॥१०२॥ - समय की (केशबन्धनादि रूप से गृहीत प्राचार की) मुक्तिपर्यन्त (उसे तोड़ने की अवधि तक) जो हिंसा प्रादि पांच पापों का पूर्ण रूप से सर्वत्र त्याग करना है, उसका नाम आगम के ज्ञाता 'सामायिक कहते हैं । केशबन्धन, मुष्टिबन्धन, वस्त्रवन्धन, पर्यकुबन्धन (पद्मासन) और खड़े होकर कायोत्सर्ग करना, तथा बंटकर कायोत्सर्ग करना, इनको प्रामम के ज्ञाता अथवा सामायिक सिद्धान्त के जानकार पुरुष सामायिक का अनुष्ठान कहते हैं। वनों में, मकान में तथा चैत्यालयों में अथवा अन्य गिरि-गुहादिकों में, निरुपद्रव-निराकुल एकान्त स्थान में प्रसन्नचित्त से स्थिर होकर सामायिक को बढ़ाना चाहिए। उपवास तथा एकामान के दिन व्यापार और वैमनस्य से बिनिवृत्ति धारण कर अन्तर्जल्पादि रूप संकल्प-विकल्प के त्याग द्वारा सामायिक को मृत करना चाहिए। प्रतिदिन भी निरालसी और एकाग्रचित्त गृहस्थ श्रावकों को चाहिए कि वे यथाविधि सामायिक को बढ़ावें, क्योंकि यह सामायिक अहिंसादि पांच व्रतों की पूर्णता का कारण है। सामायिक में कृष्यादि प्रारम्भ के साथ-साथ सम्पूर्ण बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का प्रभाव होता है। इसलिए सामायिक की अवस्था में गृहस्थ श्रावक की दशा चेलोपसृष्ट मुनि (वस्त्र के उपसर्ग से युक्त मुनि) जैसी होती है अतः यह शिक्षावत है ।
प्रोषधोपचास-प्रोषध का अर्थ पर्व है और पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है। अर्थात् चार प्रकार के प्राहार का त्याग करना उपवास है। तथा प्रोषध के दिनों में जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवासी श्रावक को अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला और पाभरण प्रादि का त्याग करके किसी पवित्र स्थान में, साधुनों के रहने के स्थान में, चैत्यालय में या प्रोषध के लिए नियत किये गये अपने घर में धर्म-कथा सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मन को लगाकर उपवास करना चाहिए। और सब प्रकार का आरम्भ छोड देना चाहिए। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। प्रोषधोपचास शिक्षाप्रत उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है।
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२१ ।