Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४७६-४७३
संयममार्गणा/५५१
भोगोपभोगपरिमाण दान अतिथिसंविभाग सल्लेखना
६ प्रा. सोमदेव सामायिक प्रोषधोपवास ७ प्रा. देवसेन देवस्तवन ८ श्रावक प्रतिक्रमण মাহি অতিসীমা
सूत्र सं. २ ६ श्री वसुनन्दि भोगविरति परिभोग विरति
प्राचार्य १० श्री अमृतचन्द्राचार्य सामायिक प्रोषधोपवास
भोगोपभोगपरिमाण
वयावृत्य
मामायिक तृतीय प्रतिमा है और प्रोषधोपवास चतुर्थ प्रतिमा, अत: श्री वसुनन्दि आचार्य ने तथा बाबक प्रतिक्रमण सूत्र सं. २ में सामायिक व प्रोषधोपबास को शिक्षाव्रत में गभित नहीं किया। शिक्षाव्रतों को उनरोत्तर उन्नति आगामी की प्रतिमाएँ हैं. इस दृष्टि से किन्हीं प्राचार्यों द्वारा सामायिक व प्रोषधोपवास को शिक्षाव्रत में सम्मिलित कर लिया गया। तत्त्वार्थमूत्र में उल्लिखित चार शिक्षान्नतों का स्वरूप इस प्रकार है
सामायिक—इसके स्वरूप का विस्तृत कथन सामायिक संयम में किया जा चुका है। शिक्षाव्रत की दृष्टि से कथन इस प्रकार है-सामायिक के लिए की गई क्षेत्र व काल की अवधि, सामायिक स्थित श्रावक के उतने काल के लिए उस क्षेत्र से बाहर पूर्ववत् महावत होता है ।' चारित्रपाइंड गाथा २५ की टीका में इस प्रकार कहा गया है-"सामायिकं च प्रथम शिक्षावतं । चैत्यपञ्चगुरुभक्तिसमाधिलक्षणं विनं प्रति एकवारं द्विवारं त्रिवारं वा व्रत-प्रतिमायां सामायिकं भवति।" सामायिक नामक प्रथम शिक्षाबत है। इसमें चैत्यभक्ति, पञ्च परमेष्ठी भक्ति और समाधि भक्ति करनी चाहिए। व्रतप्रतिमा में जो सामायिक होती है वह दिन में एक बार, दोबार अथवा तीन यार होती है। परन्तु सामायिक प्रतिमा में जो सामायिक कहा गया है वह नियम से तीन बार करना चाहिए।
रागद्वेषत्यागानिखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥१४८।। रजनीदिनयोरन्ते तदबश्यं भावनियमविश्वलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥१४६।। सामायिक श्रितानां समस्तसावधयोगपरिहारात् ।
भवति महाव्रतमेषामुपयेऽपि चरित्रमोहस्य ।।१५०॥ [पुरुषार्थसिद्धय पाय |
रागद्वेष के त्याग से समस्त इप्ट-अनिष्ट पदार्थों में साम्यभाव को अंगीकार कर आत्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल कारण सामायिक रूप कार्य है । वह सामायिक गत्रि और दिन के अन्त में एकाग्रता पूर्वक अवश्य ही करना चाहिए। फिर यदि अन्य समय में किया जाय तो वह सामायिककार्य दोष के हेतु नहीं किन्तु गुण के लिए होता है। इन सामायिक दशा को प्राप्त हुए श्रावकों के चारित्रमोह के उदय होते भी, समस्त पाप के योगों के त्याग से महावत होता है।
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२१।