Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४७६-४७७
संयममार्गणा / ५४६
असिधेनु विषहुताशनलाङ्गल-करवाल का कादीनाम् । वितरणमुपकररणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ।। १४४ । । [ पुरुषार्थसिद्धध ुपाय ]
- छुरी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष, आदि हिंसा के उपकरणों का वितरण करना यत्न से छोड़ दे । इसका नाम हिंसादान प्रनर्थदण्ड व्रत है ।
हिंसा और रामादि को बढ़ाने वाली दुष्ट कमाओं को सुना और उनकी शिक्षा देना अशुभ श्रुति नाम का अर्थदण्ड है ।
प्रारम्भ - संग साहस- मिध्यात्व-राग-द्वेष-मद-भवनैः ।
चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥७२॥ [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ]
— व्यर्थ के आरम्भ (कृष्यादि सावद्यकर्म ), परिग्रह (धन, धान्यादि की इच्छा ), साहस ( शक्ति तथा नीति का विचार न करके एकदम किये जाने वाले भारी असत्कर्म), मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और मदन ( रति काम) के प्रतिपादनादि द्वारा चित्त को कलुषित मलिन करने वाले शास्त्रों को सुनना, (नाविल पढ़ना, सिनेमा देखना, टेलीविजन देखना, रेडियो सुनना, आदि) दुःश्रुति अशुभ श्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। इसका त्याग अनर्थदण्ड व्रत है ।
रागादिवर्द्धनानां कुष्टकथा-नामबोधबहुलानाम् ।
न harat कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ॥ १४५ ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- रागद्वेष को बढ़ाने वाली तथा बहुत करके अज्ञानता से भरी हुई दुष्ट कथाओं का सुनना, संग्रह करना, सिखाना किसी भी समय न करे। यह बुःश्रुति नामक पाँचवाँ अनर्थदण्ड है। इसका न करना अनर्थदण्ड व्रत है ।
अब तवार्थसूत्र के अनुसार देशव्रत नामक तीसरे गुरणव्रत का कथन किया जाता है । भोगोपभोग परिमाण व्रत का कथन शिक्षाव्रतों में किया जाएगा ।
ग्रामादिक को निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देश बिरति व्रत है । यहाँ भी दिग्विरति व्रत के समान मर्यादा के बाहर महाव्रत है।
तत्रापि च परिमाणं ग्रामापरणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥ १३६ ॥
इति विरतो बहुवेशात् तस्य हिंसा विशेष परिहारात् । तत्कालं विमलमति: यहां विशेषेण ॥। १४० ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- उस दिग्वत में भी ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्लादिकों का परिमाण करके मर्यादाकृत क्षेत्र से बाहर किसी नियत समय पर्यन्त त्याग करना चाहिए। इस प्रकार बहुत क्षेत्र का त्यागी
१२. सर्वार्थसिद्धि ७।२१ ।