Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५३२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६८
जहखासजमो पुण उवसमदो होदि मोहणीयस्स ।
खयदो वि य सो णियमा होदित्ति जिणेहि णि ट्ठि।।४६८।। गाथार्थ. मात्र बादर संज्वलन कषाय के उदित होते हुए भी तीन बादर संयम (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि होते हैं। किन्तु परिहारविशुद्धिसंयम प्रमत्त और अप्रमत्त संयत इन दो गुणस्थानों में होता है । सूक्ष्म लोभ के उदय होने पर भी सूक्ष्मसाम्पराय संयम होता है ॥४६७।। मोहनीयकर्म का उपशम होने पर तथा क्षय होने पर नियम से यथाख्यात संयम होता है । ऐसा जिन (श्रुतकेवली) ने कहा है ।।४६८।।
विशेषार्थ--'मैं सर्व प्रकार के सावद्ययोग से विरत हूँ।' इस प्रकार द्रव्याथिक नय को अपेक्षा सकल सावायोग के त्याग को सामायिक शुद्धि-संयत कहते हैं ।
शङ्का-इस प्रकार एक व्रत के नियमवाला मिथ्याष्टि क्यों नहीं हो जाएगा?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस में सम्पूर्ण चारित्र के भेदों का संग्रह होता है, ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नय को समीचीन दृष्टि मानने में कोई विरोध नहीं पाता है ।
शङ्का—यह सामान्य संयम अपने-अपने सम्पूर्ण भेदों का संग्रह करनेवाला है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'सर्वसावधयोग' पद के ग्रहण करने से ही, यहाँ पर अपने सम्पूर्ण भेदों का संग्रह कर लिया गया है, यदि यहाँ पर संयम के किसी एक भेद की ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि ऐसे स्थल पर 'सर्व' शब्द का प्रयोग करने में विरोध पाता है।
इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि जिसने सम्पूर्ण संयम के भेदों को अपने अन्तर्गत कर लिया है, ऐसे अभेद रूप से एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिकशुद्धि संयत कहलाता है ।
उस एक प्रत का छेद अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के प्रारोपण करने को छेदोपस्थापना शुद्धि संयम कहते हैं । सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य को अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करनेवाला होने से सामायिकशुद्धि संयम द्रव्याथिकनयरूप है। और उसी एक नत को पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयम पर्यायाधिक नय रूप है। वहाँ पर तीक्ष्णबुद्धि मनुष्यों के अनुग्रह के लिए द्रव्याथिकनय का उपदेश है और मन्दबुद्धि जनों के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई भेद नहीं है ।
शङ्का उपदेश की अपेक्षा संयम भले ही दो प्रकार का हो, वास्तव में तो वह एक ही है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह कथन हमें इष्ट ही है। शङ्का - जबकि इन दोनों की अपेक्षा अनुष्ठानकृत संयम के दो भेद नहीं हो सकते हैं तो संयम
१. धवल पु. १ पृ. ३६६। २. धवल पु. १ पृ ३३० ।