Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ४७६-४७१
संयममागरणा ५४५ शङ्का- मूर्छा क्या है ?
समाधान-गाय भैंस, मणि और मोती आदि चेतन-अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादि रूप अभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार मूर्छा है। मूर्दा धातु का सामान्य अर्थ मोह है । और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं। ऐसा मानलेने पर यहाँ मूळ का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है।'
शंका . मूर्छा का यह अर्थ ग्रहण करने पर भी बाह्य वस्तु को परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मूळ इस शब्द से प्राभ्यन्तर परिग्रह का संग्नह होता है ?
समाधान--यह कहना सत्य है ; क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तर का ही संग्रह किया गया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह न रहने पर भी 'यह मेरा है ऐसा संकल्प वाला पुरुष परिग्रहवान
शङ्का - यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं हैं और मूछ का कारण होने से यह मेरा है। इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि के समान ज्ञामादिक में भी 'यह मेरा है इस प्रकार का संकल्प होता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की प्रवृत्ति होती है। इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र बाला होकर प्रमादरहित है, उसके मोह का अभाव होने से मुच्र्छा नहीं है, अतएव परिग्रहरहितपना सिद्ध होता है। दूसरे, बे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं, इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। परन्तु रागादिक तो कर्मोदय से होते हैं, अत; व प्रात्मा का स्वभाव न होने से हेय हैं, इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। सब दोष परिग्रहमुलक होते हैं। यह मेरा है। इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है तथा नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब परिग्रह से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जो परिग्रह से तृष्णा घटाकर परिग्रह का परिमाण कर लेता है वह अपरिग्रह अणुव्रत का धारक है ।
"परिगहारम्भपरिमाणं-परिग्रहाणां सुवर्णादीनामारम्भारगां सेवाकृषिवाणिज्यादीनां परिमाणं क्रियते ।" [चारित्रपाहुड गा. २३ टीका] । सुवर्णादि परिग्रह तथा खेती, व्यापार प्रादि प्रारंभों का परिमार। करना परिग्रहपरिमारणाणुवत है।
'अणु' शब्द अल्पवाचो है जिसके व्रत अणु अर्थात अल्प हैं, वह अणुव्रतवाला है ।
शङ्का- गृहस्थ के व्रत अल्प कैसे होते हैं ?
समाधान -- गृहस्थ के पूर्ण रूप से हिंसादि दोषों का त्याग सम्भव नहीं है, इसलिए उसके व्रत अल्प होते हैं। यह बस जीवों को हिंसा का त्यागी है इसलिए उसके पहला अहिंसा अणुवत होता है।
१. सर्वार्थरिद्धि ७।१७। २. सर्वार्थ सिद्धि ७:१७ ।