Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
५४०/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा ४७६-४७७
सब के लिए खुले नहीं हैं। प्रथवा 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है, जिससे यह अर्थ होता है कि प्रमत्तयोग से बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना स्तेय है । गली कूचा आदि में प्रवेश करने वाले वक्ष के तो है नहीं इसलिए वैसा करते हुए भिक्षु के स्तेय का दोष नहीं लगता ।'
स्तेय का एकदेशत्याग प्रचार्यानुव्रत है।
"तितिवखधूले य-1 - तितिक्षा रथले चौर्यस्थले परिहारः ।" [ चारित्र पाहुड गा. २३ टीका ] स्थूल रूप से चोरी का त्याग करना अत्र व्रत है |
शङ्का अब्रह्म किसे कहते हैं ?
-
समाधान-"मैथुनमब्रह्म" || १६|| चारित्रमोहनीय का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन है और इसका कार्य मैथुन है। 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है। इसलिए रतिजन्यसुख के लिए स्त्रीपुरुष की मिथुन विषयक जो चेष्टा होती हैं वही मंथुन रूप से ग्रहण की जाती है। अहिंसादिक गुण जिसके पालन करने पर बढ़ते हैं वह ब्रह्म है और जो इससे रहित है वह अब्रह्म है । मैथुन में हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, क्योंकि जो मैथुन के सेवन में दक्ष है, वह चराचर सब प्राणियों की हिंसा करता है |
मैथुनाचरणे मूढ ! त्रियन्ते जन्तुकोटयः ।
योनिरन्ध्रमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिता ॥ २१॥ [ ज्ञानार्णव मैथुन अधिकार १३ |
- अरे मूढ़ ! स्त्रियों के साथ मैथुन करने से, उनके योनिरूप छिद्र में उत्पन्न हुए करोडों जीव लिङ्ग के आघात से पीड़ित होकर मरते हैं । "घाए घाए प्रसंखेज्जा" लिङ्ग के प्रत्येक प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं ।
हिस्यन्ते तिलनात्यां तप्तायति विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ||१०८ || [ पुरुषार्थ सिद्धच पाय ] - जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोहे का सरिया डालने से तिल नष्ट होते हैं उसी प्रकार मंथुन के समय योनि में भी बहुत जीव मरते हैं ।
ܩ
परिहारो पर पिम्मे परिहारः क्रियते परप्रेम्णि परदारे ।" [ चारित्र पाहुड गा. २३ टीका ] पर प्रिया का त्याग अर्थात् स्वदारा के अतिरिक्त सम्पूर्ण स्त्रियों का त्याग ब्रह्मचर्यानुव्रत है । शङ्का - परिग्रह किसे कहते हैं ?
समाधान--"मूर्च्छा परिग्रहः " ||१७|| मुर्च्छा परिग्रह है ।
१. मसिद्धि ७३१५ । २. सर्वार्थसिद्धि ७ । १६ ।