Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५४२ / गो. सा. जत्रकाण्ड
गाथार्थ - पाँच प्रणत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रतों से सहित सम्यग्ग्रष्ट देशविरत कहे. जाते हैं। संयमासंयम के कारण वे निरन्तर कर्मनिर्जरा वाले होते हैं ||४७६ ॥ दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्त विरत, ब्रह्मचारी प्रारम्भविरल, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरत के ग्यारह भेद हैं ||४७७ ।।
विशेषार्थ - हिंसा, सत्य, चोरी, श्रब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों से एकदेशविरति पाँच ग्रणुव्रत हैं। श्री तत्वार्थसूत्र में कहा भी है- हिंसानृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तम् ॥ १॥ देशसर्वतोऽणुमहती ||२||”
थूले तसकाय परिहारो
थले मोसे तितिवखयले य ।
गाया ४७९-४5.9
परिहारंभपरिमाणं ॥ २३॥ [ चारित्रपाहुड़ ]
स्थूल असंबंध, स्थूल असत्य कथन, स्थूल चोरी, परस्त्री का परिहार तथा परिग्रह और आरम्भ का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं ।
शङ्का हिंसा किसे कहते हैं ?
समाधान - " प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" || ७|१३|| [तस्वार्थसूत्र ] । कषाय सहित अवस्था से युक्त जो ग्रात्मा का परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है। तथा प्रमत्त प्रमाद श्रर्थात् का योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्ध से इन्द्रियादि दस प्रारणों का यथासंभव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा है । इससे प्राणियों को दुःख होता है इसलिए अधर्म है । केवल प्राणों का वियोग करने से अधर्म नहीं होता, यह बतलाने के लिये सूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' अर्थात् 'प्रमत्तयोग से ' यह पद दिया है। प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से हिंसा हो जाती है। कहा भी है -
"मरवु व जियदु व जीवो प्रयदाचारस्स शिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिसामितेण समिवस्स || ३|१७|| [ प्रवचनसार ]
१. सर्वार्थसिद्धि ७११३ ।
-- जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है । समिति सहित यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के प्राणव्यपरोपण हो जाने पर भी संकल्पी हिंसा निमित्त बन्ध नहीं होता । वास्तव में राग आदि भाव हिंसा है, कहा भी है
प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिलागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ । [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- निश्चय करके रागादि ( राग-द्वेष ) भाबों का उत्पन्न न होना अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है। ऐसा जैन आगम में निश्चय से कथन किया गया है।
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनत्यात्मा
प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥