Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५४० / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४.३५
गाथार्थ – उपशमश्रेणी
या क्षणी आरोहक सूक्ष्म लोभ का अनुभव करनेवाला जीव सूक्ष्मसाम्पराय संगत है। किन्तु यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ न्यून है ||४७४||
विशेषार्थं - - सामायिक, छेदोपस्थापना संयम को धारण करने वाले साधु जब अत्यन्त सूक्ष्म कषाय वाले हो जाते हैं अर्थात् लोभ की सूक्ष्म कृष्टि के उदय का वेदन करने वाले साधु के सूक्ष्म साम्पराय संघम होता है। यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ न्यून होता है, क्योंकि अभी तक अत्यन्त सूक्ष्म लोभ का उदय है, पूर्णतः कषायी नहीं हुआ। यथास्यात संयम अकषायी जीवों के होता है ।"
सूक्ष्म स्थूल प्राणियों के वध के परिहार में जो पूर्ण रूप से अप्रमत्त हैं, अत्यन्त निर्वाध उत्साहशील, अखण्डित चारित्र, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूपी महापत्रन से धोंकी गई प्रशस्त श्रध्यवसाय रूपी अग्नि की ज्वालाओं से जिसने मोह कर्म रूपी ईंधन को जला दिया है या उपशम करदिया है, ध्यान विशेष से जिसने कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है. सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में धकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ कषायवाले साधु के सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। यह संयम ( चारित्र) प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने पर भी गुप्त और समिति से भी आगे और बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थान में, जहाँ मात्र सूक्ष्मलोभ टिमटिमाता है, होता है। अतः पृथक रूप से निर्दिष्ट किया गया है।
इस सूक्ष्म साम्पराय संग्रम का कथन गा. ६६७-६६८ के विशेषार्थ में भी है ।
यथाख्यात संयम का स्वरूप
उवसंते खोणे वा प्रसुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि |
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छदुमट्टो व जिरगो या जहखादो संजदो सो टु ||४७५ ||
गाथार्थ - अशुभ मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षय हो जाने पर छद्मस्थ व अर्हन्त जिन के यथाख्यात शुद्धि संयम होता है ।।४७५ ॥
विशेषार्थ - - परमागम में विहार अर्थात् 'कषाय के प्रभावरूप अनुष्ठान' का जैसा प्रतिपादन किया गया है, तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है उन्हें यथाख्यात बिहार संयत कहते हैं । " उपशान्तकषाय व क्षीणकषाय अर्थात् ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान वाले छमस्थ वीतराग अथवा छद्मस्थ
कषायी हैं । सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती और प्रयोगकेवली चौदहवें गुरगस्थानवर्ती जिन हैं। इन चारों गुणस्थानों में कपाय का प्रभाव हो जाने से, प्रात्मस्वभाव की यथावस्थित अवस्था लक्षणवाला यथास्यात संयम होता है ।"
चारित्रमोह के सम्पूर्ण उपगम या क्षय से श्रात्मस्वभाव स्थिति रूप परम उपेक्षा परिणति यथाख्यात संयम है। पूर्व संयम का अनुष्ठान करने वाले साधुयों ने जिसे कहा और समझा तो है, पर
१. ध. पू. १ पृ. ३७१ । २. रा. वा. ६०१८।६-१० । ३. धवल पु. १ पृ. ३७३ गा. १९१: प्रा. पं. सं. थ. १ गा. १३३ । ४. धवल पु. १ . २७१ ५. संस्कृत टीका के प्राधार से ।