Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४७४
मंयममार्गमा ५३९
थी आदिप्रभु के तीर्थ में शिष्य सरल स्वभावी और जड़बुद्धि थे, अत: सामायिक संयम का उन्होंने व्रत, समिति और गुप्ति आदि प्रकार से भेदप्रतिपादन किया। श्री महावीर के तीर्थ में शिष्य जड़बुद्धि और वक्र थे, उनको व्रतों में स्थिर करना कठिन था, अत: उनके लिए व्रत, समिति, गुप्ति प्रादि प्रकार से भेद प्रतिपादन किया। श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ पर्यन्त शिष्य व्युत्पन्न और वक्रतारहित थे अत: उनके लिए अभेद रूप सामायिक संयम का कथन है।
जिसमें प्रारिरावध के परिहार के साथ-साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि संयम है । जिसने तीस वर्ष की आयु तक अपनी इच्छानुसार भोगों को भोग कर सामान्य से एकरूप सामायिक संयम को और विशेष रूप से पांच समिति व तीन गुप्ति सहित छेदोपस्थापना संयम को धारण कर पृथक्त्व वर्ष तक तीर्थंकर के पादमूल की सेवा की हो और जो प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व का पारङ्गत होकर, जन्तुओं की उत्पत्ति विनाश के देशकाल द्रव्य आदि स्वभावों को जानकर अप्रमादी, महावीर्य, उत्कृष्ट निर्जराशील, अतिदुष्कर चर्या का अनुष्ठान करने वाला हो वह परिहारशुद्धि संयम को धारण करता है। वह तीनों संध्या काल के सिवाय प्रतिदिन दो कोस गमन करता है किन्तु रात्रि में गमन नहीं करता है।
परिहारधिसमेतः षड्जीवनिकायसंकुले बिहरम् । पपसेव पनपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ।'
परिहारविशृद्धि ऋद्धि सहित मुनि छह काय के जीव समूह वाले स्थान में विहार करने पर भी पाप से निप्त नहीं होते जैसे कमलपत्र जलसमूह में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता । परिहारविशुद्धि का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त होकर जघन्यकाल तक रहकर अन्य गुणस्थान को प्राप्त हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल होता है । उत्कृष्ट से कुछ कम पूर्व कोटि काल है। सर्व सुखी होकर तीस वर्ष बिताकर, पश्चात् वर्षपृथक्त्व से तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व को पढ़ कर तत्पश्चात् परिहारशुद्धिसंयम को प्राप्तकर और कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीव के यह काल होता है। इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण परिहारशुद्धि संयम का काल होता है । कोई प्राचार्य सोलह वर्षों से और कोई वाईस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण कहते हैं ।
सामायिक संयम, छेदोपस्थापना संयम और परिहारविशुद्धि संयम इन तीनों संयमों का स्वरूप धवल ग्रन्थ के अाधार पर विस्तार भा, ४६४-४६८ की टीका में कहा गया है । वहाँ पर भी देखना चाहिए।
सूक्ष्म-साम्पराय-संयम का स्वरूप अणुलोहं वेवंतो जीवो उवसामगो व खवगो वा । सो सुहमसांपराश्रो जहखादेणगो किंचि ॥४७४।।'
१. मुलाचार अधिकार ७ गा, ३६.३८ पृ. ४१४-४१५ । २. संस्कृत टीका मे उद्धा । ३. भ. प. ७ पृ. १६५ सूत्र १४८ । ४. ज.ध.२ पृ. १२०, ध. पु . १६५ सूत्र १४६ । ५.ध.प.१ पृ. ३७३, प्रा.प. सं. प्र.१ गा, १३२ ।