Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४६७
संयममार्गणा/५३१
गाथार्थ-चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर बादर संज्वलन या सूक्ष्म साम्पराय के उदय के रहते हुए भी नियम से संयमभाव उत्पन्न होता है, इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।।४६६।।
विशेषार्थ ... वर्तमान में प्रत्याख्यानावरण चारिश्रमोहनीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय (रदय के अभाव रूप क्षय) होने से और आगामी काल में उदय में आने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न प्राने रूप उपशम से तथा संज्वलन कपाय के बादर देशघाती या सूक्ष्म देशघाती स्पर्धकों के उदय में आने पर संयम उत्पन्न होता है, इसलिए संयम क्षायोपशमिक है।
शङ्खा-संज्वलन कषाय के उदय से संयम होता है, इसलिए उसको (संयम को) प्रौदयिक क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि संस्तु कपाल सदा से गंगा की उत्पत्ति नहीं होती है।
शथा. तो संज्वलन का व्यापार कहाँ पर होता है ?
समाधान -प्रत्यास्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाबी क्षय से और सदबस्थारूप उपशम से उत्पन्न हुए संयम में मल उत्पन्न करने में संज्वलन का व्यापार होता है।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक लब्धि से जीव संयत होता है ।
चारित्राबरण कर्म के मर्वोपशम से जिस जीव की कमायें उपशान्त हो गई हैं उसके संयम होता है । इस प्रकार औपमिक लब्धि से संयम की उत्पत्ति होती है।
चारित्रावरण कर्म के क्षय से भी संयम की उत्पत्ति होती है, इससे क्षायिक लब्धि द्वारा जीव संबत होता है।
चारों संज्वलन कषायों और नी नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय से संयम की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयत के क्षायोपशमिक लब्धि भी पाई जाती है।
शङ्कर-देश घानी स्पर्धकों के उदय को क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया ?
समाधान- सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणहीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं । उन सर्वघाती स्पर्धकों की अनन्तगुणहीनता ही क्षय है और उनका देशघाती स्पर्धकों के रूप से अबस्थान होना उपशम है । उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। उसी क्षयोपशम से उत्पन्न संयम भी इसी काररग क्षायोपशामिक होता है।'
बादरसंजलणुदये बादरसंजमतियं खु परिहारो । पदिदरे सुहुमुदये सुहमो संजमगुणो होवि ॥४६७।।
१. धवल पु. १ पृ. १५६-३:४७ ।
२. धवल पु. ७ पृ. ६२ मूत्र ४६ । ३, धवल पु. ७ पृ. ६२ ।