Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा४६१-४६४
ज्ञानमार्ग/ ५२६
प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है । इतना विशेष है कि मन:पर्ययज्ञानी उपशामक दस और क्षपक बीस होते हैं । "
केवलज्ञानी जीवों में सयोगी जिन लक्षपृथक्त्व है। इनसे अधिक सिद्ध प्रमाण केवलज्ञानियों की संख्या है । केवलज्ञानियों में सिद्ध-राशि की मुख्यता है, क्योंकि वे अनन्त हैं। संयोगकेवली और that संख्यात हैं। सयोगकेवली और प्रयोगकेवली से अधिक सिद्धराशि केवलज्ञानियों की संख्या होती है ।
मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीव अनन्त हैं, क्योंकि जितने भी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव है वे सब मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी हैं। क्योंकि दोनों प्रकार के अज्ञानों से रहित मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं । भिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं । अनन्त होते हुए भी वे मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण हैं । सासादनसम्यष्टि पल्य के असंख्यातवें भाग हैं। "
शङ्का - विभंगजानी मिध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव हैं, इसलिये श्रोषमिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्वष्टियों के प्रमाण से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीव कम कम हो जाते हैं ।
समाधान- नहीं, क्योंकि मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी को छोड़कर विभंग ज्ञानी जीब पृथक् नहीं पाये जाते हैं इसलिये इनका प्रमाण मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्वष्टियों के समान है ।
सर्व जीवराशि के अनन्त खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुतानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भाग के अनन्त खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग केवलज्ञानी जीव हैं । शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग विभंगज्ञानी मिध्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव हैं । इन्हीं मनिज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयत सम्यग्दष्टियों की प्रतिराशि करके और उसे ग्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसकी उसी प्रतिराशि में से घटा देने पर अवधिज्ञानी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है।७ अंक संदृष्टि अनुसार ज्ञानमार्गणा में विभिन्न ज्ञानियों को संख्या इस प्रकार है
प्रत्यशानी भुताज्ञानी विभंगज्ञानी मति श्रुतज्ञानी श्रवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी केवलज्ञानी
असंख्यात असंख्यात
प्रसंख्यात
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इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गसा नामक बारयाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ।
अनन्त
१३
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सजीवराशि
अनन्त
१६
४. घवल
१. धवल पु. ३ पृ. ४४२-४४३ । २. धवल पु. ३ पृ. ६५ सुत्र १४ । ३. धवल पु. ३ पृ. ४३६ । ५. ३ पृ. १० सु. २ । ५. घवल पु. ३ पृ. ६३ सूत्र ६ । ६. बनल पु. ३ पृ. ४३७ । ७. घवन पु. ३ पृ. इयं संदृष्टि लायां तृतीये पुस्तके प्रस्तावनाया सप्तशतितमे पृष्टांके रागस्ति । लत्र सर्वासां 4: प्रदत्ताः सन्ति ।
४४२ ।