Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया ४६१-४६२
जान मागंला / ५२७
होने पर भी, सहानवस्थान लक्षण विरोध के न होने से चूंकि यह अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, विरति (चरित्र) एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि श्रनन्त गुणों से पूर्ण है, इसलिए इसे सम्पूर्ण कहा जाता है। वह सकल गुणों का निधान है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । ' सपत्न' का अर्थ शत्रु है, केवलज्ञान के शत्रु घातिया कर्म हैं। वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिए केवलज्ञान असपत्न है । उसने अपने प्रतिपक्षी घातिचतुष्क का समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।"
केवलज्ञान असहाय है, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार की अपेक्षा से रहित है । शङ्का - केवलज्ञान आत्मा की सहायता से होता है, इसलिए उसे केवल ( असहाय ) नहीं कह सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता इसलिए केवलज्ञान को केवल (अ) कहने में कोई नहीं है।
शङ्का - केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है इसलिए उसको केवल (असहाय } नहीं कह सकते हैं।
समाधान- -नहीं, क्योंकि नष्ट हुए प्रतीत अर्थों में और अनुत्पन्न हुए अनागत अर्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिए केवलज्ञान अर्थ की सहायता से होता है, यह नहीं कहा जा सकता है ।
शङ्का - यदि विनष्ट और अनुत्पन्न रूप से ग्रसत् पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होयो ?
समाधान नहीं, क्योंकि खरविपारण का जिस प्रकार वर्तमान में सत्य नहीं पाया जाता है, उसी प्रकार उसका वर्तमान में भृतशक्ति और भविष्यत्शक्ति रूप से भी सत्त्र नहीं पाया जाता है। अर्थात् जैसे वर्तमान पदार्थ में उसकी अतीत पर्यायें, जो पहले हो चुकी हैं। भूतशक्तिरूप से विद्यमान हैं और अनागत पर्यायें, जो आगे होने वाली हैं भविष्यत्शक्ति रूप से विद्यमान हैं, उस तरह खरविषाण ( गधे का सींग) यदि पहले कभी हो चुका होता तो भूतशक्तिरूप से उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान होती, तथैव वह आगे होने वाला होता तो भविष्यत्शक्तिरूप से उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान रहती, किन्तु खरविषाण न तो कभी हुआ और न कभी होगा। अतः उसमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है ।
ज्ञानमागंगा में जीवसंख्या का निरूपणा
दुगमिवसुदोहा पल्लासंखेज्जया हु मरणपज्जा | संखेज्जा केवलिगो सिद्धादो होंति प्रतिरिक्ता ॥ ४६१ || हिरहिदा तिरिक्ता मदिणाणिश्रसंखभागगा मणुना । संखेज्जा हु तदूणा मदिरणारणी श्रहिपरिमाणं ॥। ४६२ ।।
१. ध. पु. १३. ३४५-३४६ ।