Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५.२८/गी. सा. जीवकाण्ड
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पल्ला संखघणं गुल हद से ठितिरिक्त-गविविभङ्गजुदा परसहिदा किंचूरणा चदुगदिवेभङ्ग - परिमाणम् ||४६३ ||
सणारा सि-पंचय परिहीणी सव्वाजीवरासी हु । मबिसुवणारी पत्तेयं होदि परिमाणं ||४६४॥
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गाथार्थ - चारों (नारकी, तिर्यन, मनुष्य और देव ) गति सम्बन्धी मतिज्ञानियों और श्रुतज्ञानियों का प्रमाण पत्य के असंख्यातवें भाग है। मन:पर्यय ज्ञानवाले संख्यात है, केवली (केवलज्ञानी) सिद्धों से कुछ अधिक हैं || ४६१|| अवधिज्ञान रहित तिर्यंच, तथा मतिज्ञानियों की संख्या के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवधिज्ञान रहित संख्यात मनुष्य इन दोनों राशियों को मतिज्ञानियों की संख्या में से कम करने पर शेष अवधिज्ञानियों का प्रमाण है ।। ४६२ ॥ पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणित घनांगुल प्रमाण जगश्रेणियां, इतने विभंगज्ञानी तिथंच हैं; तथा विभंगज्ञानी मनुष्य तथा देव नारकी सम्यरष्टियों से रहित शेष सब देव व नारकी; यह चतुर्गति सम्बन्धी सब विभंगज्ञानियों की संख्या है || ४६३ || सर्व जीवराशि में से पाँच सम्यग्ज्ञानियों की संख्या कम करने पर कुमति व कुश्रुत ज्ञानियों का प्रमाण होता है ||४६४||
गाथा ४६३-४६४
विशेषार्थ - आवली के असंख्यातवें भाग का श्रावली में भाग देने पर जो लब्ध प्रावे वह अर्थात् आवली का प्रसंख्यातवाँ भाग प्रसंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के प्रमाण के निकालने के विषय में अवहारकाल का प्रमाण होता है । यह काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। यह असंयत सम्यग्दृष्टियों का ओध अवहारकाल ही मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवों का अवहार काल है। इस अवहार काल ( श्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त) से पत्य को भाग देने पर मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानियों का प्रसारण प्राप्त होता है । इस अवहार काल को प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी प्रवहार काल में मिला देने पर अवधिज्ञानियों का अवहार काल होता है । इस अवहार काल से पत्योपम को भाजित करने पर अवधिज्ञानियों-असंयत सम्यक्त्वी का प्रमाण प्राप्त होता हैं । अवधिज्ञानी संयतासंयत अवधिज्ञानी असंयत सम्यविश्वयों के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं । [ क्योंकि अवधिज्ञानी असंयत सम्यक्त्वी के अवहार काल से अवधिज्ञानी संयतासंयत का अवहार काल असंख्यातगुणा बताया है। (ध. ३/३३६-४० ) ] अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव अपनी-अपनी राशि के संख्यातवें भाग मात्र हैं, किन्तु वे इतने ही होते हैं यह स्पष्ट नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमान काल में इस प्रकार का गुरु का उपदेश नहीं पाया जाता है । इतना विशेष है कि अवधिज्ञानी उपशामक चौदह घोर क्षपक अट्ठाईस होते हैं । '
मन:पर्ययज्ञानी संख्यात हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में मन:पर्ययज्ञानी जीव वहाँ स्थित दो ज्ञान वाले जीवों के संख्यातवें भाग मात्र होते हैं, क्योंकि लब्धिसम्पन्न ऋषि बहुत नहीं हो सकते | फिर भी वे इतने ही होते हैं, यह ठीक नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमान काल में इस
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१. ध. पु. ३ पृ. ६५ १ ५. घ. पु. ३ पृ. ४४१ ।
२. ध. पु. ३ पृ. ४३६ ।
३. घ. पु. ३ पृ. ४३६१
४. घ. पु. ३ पृ. ४४१ |