Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५२६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४५६-४६०
भावों की संख्या है, जघन्य से उत्कृष्ट प्रसंख्यात गुणा है। विपुलमति का जनन्य भाव विषयक प्रमाण, ऋजुमति के उत्कृष्ट से असंख्यातगुणी है। और उत्कृष्ट प्रसंख्यात लोक प्रमाण है || ४५८ । ।
विशेषार्थ - जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान भाव को अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट द्रव्यों में अपने-अपने योग्य असंख्यात वर्तमान पर्यायों को जानता है ।" त्रिपुलमति ज्ञान भाव की अपेक्षा जो-जो द्रव्यज्ञाता हैं उन-उनकी वर्तमान असंख्यात पदार्थों को जानता है ।
मदन्तं कर्म खाणं । जादि इदि मस्यपज्जवलाणं कहिवं समासे
||४५६ ||
गाथार्थ - मध्यम द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को मध्यम मन:पर्यय ज्ञान जानता है । इस प्रकार मन:पर्ययज्ञान का संक्षेप से कथन किया गया ॥ ४५६ ॥
विशेषार्थं जघन्य से अधिक और उत्कृष्ट से कम वह मध्यम होता है उसको ही प्रजघन्य अनुत्कृष्ट अथवा तद्व्यतिरिक्त भी कहते हैं । जघन्य और उत्कृष्ट तो एक-एक ही प्रकार का होता है, किन्तु मध्यम के अनेक भेद होते हैं। ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान व विपुलमति मन:पर्ययज्ञान का, द्रव्य-क्षेत्र व काल की अपेक्षा कथन करते हुए मध्यम द्रव्य क्षेत्र काल का भी कथन हो चुका है। वहाँ पर देख लेना चाहिए ।
केवलज्ञान
संपुष्णं तु समगं केवलमसवत्त सम्बभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवल पाणं
मुदवं ।।४६०||
गाथार्थ - जो ज्ञान सम्पूर्ण है समग्र है, केवल है, सपत्नरहित है, सर्वपदार्थगत है, लोकालोक में अन्धकार - रहित है, उसको केवलज्ञान जानना चाहिए || ४६० ।।
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विशेषार्थ "तं च केवलणाणं सगलं, संपुष्णं प्रसवतं * ॥१॥ ग्रर्थात् वह केवलज्ञान सकल है, सम्पूर्ण है और असपत्न है । अखण्ड होने से बह सकल है ।
शङ्कर- यह प्रखण्ड कैसे है ?
समाधान - समस्त बाह्य अर्थो में प्रवृत्ति नहीं होने पर ज्ञान में खण्डपना श्राता है, वह इस ज्ञान में संभव नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान के विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं।
अथवा द्रव्य, गुण और पर्यायों के भेद का ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है, ऐसे ज्ञान के अवयवों का नाम कला है; इन कलाओंों के साथ वह अवस्थित रहता है इसलिए सकल है । 'मम्' का अर्थ सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्पर परिहार लक्षण विरोध के
१. ध. पु. ९ पृ. ६५ । २. ध. पु. पू. ६६ । ३. व. पु. १. २६०. १६६ प्रा. पं. सं. अ. १ मा १२६ ४. भ. पु. १३ पृ. ३४५ ५. घ. पु. १३ पृ. ३४५ ।