Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५२४ मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४५५-४५६
मानुषोत्तर शैल यहाँ उपलक्षणभूत है, वास्तविक नहीं है। इसलिए मैंतालीस लाख योजन क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों की चिन्ता के विषयभूत त्रिकालगोचर पदार्थ को वह जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इससे मानुषोत्तर शैल के बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर स्थित होकर विचार करने वाले देवों और तिर्यचों को चिन्ता के विषयभूत अर्थ को भी विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जानता है ।
कितने ही प्राचार्य मानुषोत्तर शैल के भीतर ही जानता है, ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार मानुषोत्तर शैल से बाहर के पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। मानुषोत्तर शैन के भीतर स्थित होकर चिन्तित अर्थ को जानता है, ऐसा भी कितने ही प्राचार्य कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार लोक के अन्त में स्थित अर्थ को भी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु दोनों ही अर्थ ठीक नहीं हैं, क्योंकि तदनुसार अपने ज्ञानरूपी पुष्पदल के भीतर आये हुए द्रव्य का अनवगम बन नहीं सकता । मनःपर्यपज्ञान मानुषोत्तर शैल के द्वारा रोक दिया जाता है, यह तो कुछ सम्भव है नहीं, क्योंकि स्वतंत्र होने से व्यवधान से हिट डासान की पत्ति में बाधा का होना सम्भव नहीं है। दूसरे, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को जानने वाला यह ज्ञान वहाँ स्थित चित्त को नहीं जाने, यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि अपने क्षेत्र के भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थ का अनवगम बन नहीं सकता। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर क्षेत्र के प्रमाण की प्ररूपणा निष्फल ठहरती है । इसलिए पैतालीस लाख योजन के भीतर स्थित होकर चिन्तवन करने वाले जीवों के द्वारा विचार्यमारण द्रव्य यदि मनःपर्ययज्ञान की प्रभा से अवष्टब्ध क्षेत्र के भीतर होता है तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता ।
उत्कर्ष से विपुलमति मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जानता है बाहर की नहीं। तात्पर्य यह कि पैतालीस लाख योजन धनप्रतर को जानता है।
आकाशश्रेणी की एक श्रेणी क्रम से ही जानता है, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर देव, ममुष्य एवं विद्याधरादिकों में विपुलमति मन:पर्थयज्ञान की प्रवृत्ति न हो सकने का प्रसंग आजाएगा। मानुषक्षेत्र के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे वाह्य क्षेत्र में नहीं, ऐसा कोई प्राचार्य कहते हैं। किन्तु वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर मानुपोत्तर पर्वत के समीप स्थित होकर बाह्य दिशा में उपयोग करने वाले के ज्ञान की उत्पनि न हो सकने का प्रसंग होगा। यदि कहा जाय कि उक्त प्रसंग पाता है तो आने दीजिये, सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके उत्पन्न न हो सकने का कोई कारण नहीं है । क्षयोपशम का अभाव, सो कारण तो है नहीं, क्योंकि उसके बिना मानुपोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर दिशाविषयक ज्ञान की उत्पत्ति भी घटित नहीं होती। अत: क्षयोगशम का अस्तित्व मिद्ध है। मानुषोत्तर पर्वत से व्यवहित होने के कारण परभाग में स्थित पदार्थों में जान की उत्पत्ति न हो, यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि असंख्यात प्रतीत व अनागत पर्यायों में व्यापार करनेवाले तथा अभ्यन्तर दिशा में पर्वतादिकों से व्यवहित पदार्थों को भी जाननेवाले मन:: पर्यवज्ञानी के अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का मानुषोनर पर्वत से अनिघात हो नहीं सकता। मानुषोत्तर पर्वत
१. ध.पृ. १३ पृ. ३४३ । २. घ. पु. १३ पृ. ३४३-३४४ ॥