Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४५२-४५५
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के द्रव्य का प्रमाण मणध्ववागणारगमगंतिमभागेरा उजुगउक्कस्सं । खंडिदमेत्तं होदि हु विउलमदिस्सावरं दध्वं ॥४५२॥ अष्टुण्डं कम्मारणं समयपवद्ध विविस्ससोवचयम् । धुवहारेरिगगिवारं भजिदे विदियं हवे दव्यं ॥४५३॥ तविदियं कप्पारणमसंखेज्जाणं च समयसंखसमं ।
धुवहारेणवहरिदे होदि हु उक्कस्सयं दत्वं ॥४५४॥ गाथार्थ --मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवें भाग से ऋजुमतिज्ञान के उत्कृष्ट द्रव्य को खण्डित करने पर विपुलमति ज्ञान के जघन्य द्रव्य का प्रमाण प्राप्त होता है ।।४५२॥ विनसोपचयरहित अष्टकर्मों के समयप्रबद्ध को एक बार ध्र बहार का भाग देने पर द्वितीय द्रव्य विकल्प होता है ।।४५३।। विपुलमति के द्वितीय द्रव्य में असंख्यातकल्पों के समय प्रमाण बार वभागाहार का भाम देने से उत्कृत नाम का प्रभाव होता है :१४५४।।
विशेषार्थ--विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जघन्य द्रव्य की अपेक्षा एक समयरूप इन्द्रियनिर्जरा को जानता है।
___ शङ्का--ऋजुमतिज्ञान का उत्कृष्ट द्रव्य ही उससे बहुत श्रेष्ठ विपुलमति का विषय कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्त विकल्प रूप घरिन्द्रिय की अजघन्यानुत्कृष्ट निर्जरा के ऋजुमति द्वारा विषय किये गए उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा उसके योग्य हानि को प्राप्त एक समयरूप इन्द्रियनिर्जरा का द्रव्य विपुलमति का जघन्य या प्रथम] विषय माना गया है। अर्थात् विपुलमति के जघन्य द्रव्य का प्रमाण होता है। [विपुलमतिज्ञान के विषयभूत] उत्कृष्ट द्रव्य के ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पों के समयों बो शलाकारूप से स्थापित करके मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तभाग का विरलन कर विनसोपचय रहित व पाठकों से सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एम.समयबद्ध को समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड द्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाकाराशि में से एक कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधान से शलाकाराशि समाप्त होने तक लेजाना चाहिए। इनमें अन्तिम द्रव्यविकल्प को उत्कृष्ट त्रिपलमति जानता है। जघन्य प्रौर उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यमविकल्पों को तव्यतिरिक्त विपुलमति जानता है । यहाँ 'मनोद्रव्य वर्गणा का अनन्तवा भाग' ध्र वहार है।
व जुगति य विपुलमति नान के विषयभूत क्षेत्र का प्रमाण गाउयपुधत्तमवरं उक्करसं होदि जोयणपुधत्तं । बिउलमदिस्स य अबरं तस्स पुधत्तं वरं खु परलोयं ॥४५५।।
१. घ.पू. ६
६६-६७ । २. प्र.पु. ६ पृ. ६७ ।