Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४५६
शानमार्गणा/५२३
गरलोएत्ति य वयणं विक्खंभरिणयामयं ण वस्स ।
जम्हा तग्घरगपवरं मरणपज्जवखेत्तमुद्दिट्ट ॥४५६॥ गाथार्थ ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान विषयक जघन्य क्षेत्र कोस पृथक्त्व और उत्कृष्ट क्षेत्र योजनपृथक्त्व है । विपुलमति का जघन्यक्षेत्र योजन पृथक्त्व तथा उत्कृष्ट क्षेत्र मनुष्यलोक प्रमाण है ॥४५५।। 'नरलोक' यह वचन विष्कम्भ अर्थात् सूचिठ्यास का नियायक है न कि वृत्ताकार (परिधिप नरलोक का । स्योंकि मन पर्ययज्ञान का वह घनप्रतर रूप क्षेत्र वाहा गया है ॥४५६।।
विशेषार्थ क्षेत्र की अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जघन्य से गव्यूति पृथक्त्व प्रमाण क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व के भीतर की बात जानता है, बाहर क्री नहीं ।' जघन्य व उत्कृष्ट क्षेत्र के मध्यम विकल्पों को तद्व्यतिरिक्त-ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जानता है ।
दो हजार धनुष की एक गब्यूति (कोस) होती है। उसको आठ से गुणित करने पर गन्यूति पृथक्त्व होता है। इसके घनप्रमाण क्षेत्र को ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जघन्य से जानता है ।
शङ्का-प्रवधिज्ञान का जघन्यक्षेत्र अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण कहा है और उसका काल पावली का असंख्यातवाँ भाग है। परन्तु अवधिज्ञान से अल्पतर इस ज्ञान का जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व कहा है और काल दो-तीन भवग्रहण प्रमाण कहा है, यह कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न जाति बाले हैं। अधिज्ञान संयत व असंयत सम्बन्धी है, परन्तु मन:पर्ययज्ञान संयत सम्बन्धी ही है। इससे इनकी पृथक-पृथक जाति जानी जाती है। इसलिए दोनों ज्ञानों में विषय की अपेक्षा समानता नहीं है। दूसरे, जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय रसादि को छोड़ कर रूप को ही जानती है, उसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञान भी भवविषयक समस्त अर्थपर्यायों के बिना यतः भव-संज्ञक दो-तीन व्यञ्जन पर्यायों को ही जानता है, इसलिए वह अवधिज्ञान के समान नहीं है। बहुत काल के द्वारा निष्पन्न हुए सात-पाठ भवग्रहण का यह अपरिच्छेदक है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अशेष अर्थपर्यायों को नहीं विषय करनेवाले और भवसंज्ञक व्यञ्जन पर्यायों को विषम करनेवाले उस ज्ञान की बहुत समयों से निष्पन्न हुए भवों में प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं पाता।
पाठहजार धनुषों का एक योजन होता है। उसे पाठ से गुणित करने पर योजन पृथक्त्व के भीतर धनुषों का प्रमाण होता है। इनका घन ऋजुमतिमनःपर्यय ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र होता
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन पृथक्त्व प्रमाण क्षेत्र को जानता है। ऋजमति का उत्कृष्ट क्षेत्र और विपूलमति का जघन्य क्षेत्र समान नहीं है, क्योंकि योजन पृथक्त्व में अनेक भेद देखे जाते हैं 13 उत्कर्ष से मानुषोत्तर शल के भीतर जानता है बाहर नहीं जानता ।
१. घ.पु. १३ पृ. ३३८; म.वं.पु. १ पृ. २५, सर्वार्थसिद्धि १/२३ । घ.पु. ६ पृ. ६५१ २ धपु १३ पृ. ३३६ । ३. श्र.पु. १३ पृ. ३४३ सूत्र ७६-७७, म. पु. १ पृ. २६ । ४. ध.पु. ६ पृ. ६७ ।