Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५३४/गो. सा. जीवकाण्ड
का अभाव पाया जाता है। नीचे के अर्थात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो क्षपक व उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय की क्षपणा व उपशमना होती नहीं है, जिससे उक्त संयतों के आयिक व प्रौपशमिक लब्धि सम्भव हो सके ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि क्षपक व उपशामक सम्बन्धी अनिवृत्ति गुणस्थान में भी लोभ संज्वलन को छोड़कर शेष चारिश्रमोहनीय के क्षपण व उपशमन के पाए जाने से वहीं क्षायिक और औपशमिक लब्धियों की सम्भावना पाई जाती है। अथवा क्षपक और उपशामक सम्बन्धी अपूर्वकरण के प्रथम समय से लगाकर ऊपर सर्वत्र क्षायिक और औपशमिक संयम लब्धियाँ हैं ही, क्योंकि उक्त गुगास्थानों के प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लेकर थोड़े-थोड़े क्षपण और उपशामन रूप कार्य की निष्पत्ति देखी जाती है । यदि प्रत्येक समय कार्य की निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समय में भी कार्य पूरा होना सम्भव नहीं है।
शङ्खा -- एक ही चारित्र के प्रापशमिक आदि तीन भाव कैसे होते हैं ?
समाधान-जिस प्रकार एक ही चित्र पतंग अर्थात् बहुवर्ण पक्षी के बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावों से युक्त हो सकता है।'
क्षायोपशमिक लब्धि से जीव परिहारशुद्धिसंयत होता है ।
चार संज्वलन और नव नोकषायों के सर्वघाती स्पर्धकों के अनन्तगुणी हानि द्वारा क्षय को प्राप्त होकर देशघाती रूप से उपशान्त हुए स्पर्धकों के उदय के सद्भाव में परिहारविशुद्धिसंयम की उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षायोपशमिक लब्धि से परिहार शुद्धिसंयम होता है, ऐसा कहा गया है।
शङ्का-चार संज्वलन और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय यदि संयम की उत्पत्ति में निमित्त होता है तो वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है?
___समाधान - नहीं, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादि के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदय के संयमासंयम को छोड़ संग्रम को उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता। अर्थात् प्रत्याख्यानाबरण के सर्ववाती स्पर्धकों के उदय का ग्रभाव संयमोत्पत्ति में निमित्त कारण है।'
साम्पराय काषाय को कहते हैं। जिन संयतों की पाय सूक्ष्म हो गई है, वे सूक्ष्म साम्परायसंयत हैं। सामायिक व छैदोपस्थापना संयम को धारण करने वाले साधु जब अत्यन्त सुक्ष्म कषाय बाले हो जाते हैं तब वे सूक्ष्म साम्परायशुद्धि संयत कहे जाते हैं।
औपशमिक और क्षायिक लब्धि से सूक्ष्म-साम्परायिक-संयत होते हैं ।' उपशामक और क्षपक दोनों प्रकार के सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानों में सूक्ष्मसाम्परायसंयम की प्राप्ति होती है, इसीलिए औषशामिक व क्षायिक लब्धि से सूक्ष्मसाम्पराय-संयम होता है।
३. धवल पु. ७
६४।
४. धवल पु. १
१. धवल पु. ७ पृ. ६३ । २. प्रवल पू. ३ पृ.६४ सूत्र ५१। पृ. ३७१। ५. धवल पृ. ७ पृ. ६५। ६. प्रवल पु. ७ पृ. ६५ ।