Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५२० / गो. सा. जीवकाण्ड
गया ४५०-४५१
दव्यं खेत्तं कालं भावं पडि जीवलक्खियं रूचि । जुविलमदो जारदि अवरवरं मज्झिमं च तहा ॥४५०॥
गाथार्थ - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान व त्रिपुलमति मन:पर्ययज्ञान जीव के द्वारा लक्षित किये गये जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट रूपो ( संसारी जीव पुद्गल ) को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा के अनुसार जानता है ।।४५० ।।
विशेषार्थ - यह ज्ञान मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। क्षायोपशमिक भाव में देशघातिया स्पर्धकों का उदय रहता है। देशघातिया स्पर्धकों के अनुभाग के कारण ही ऋजुमति मन पठान व विलपतिनजी चिन्तित रूपी पदार्थ को द्रव्य, क्षेत्र काल व भाव की मर्यादा लेकर जानता है । जितना क्षयोपशम होगा उसके अनुसार ही स्थूल या सूक्ष्म द्रव्य को निकटवर्ती या दूरस्थित अर्थ को होनाधिक काल की मर्यादा के अन्दर के द्रव्य को तथा अल्प व बहुत भावों को जानता है ।
मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञान से मन, वचन व काय के भेदों को जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थं को प्रत्यक्ष से जानने वाले मन:पर्यय ज्ञानी का विषय द्रव्य-क्षेत्र - काल व भाव के भेद से चार प्रकार का है । '
शङ्का - जीव मुर्त है यतः यह मूर्त अर्थ को जाननेवाले अवधिज्ञान से नीचे के मन:पर्ययज्ञान के द्वारा कैसे जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । *
"रूपिणः पुद्गलाः || इस सूत्र से गुद्गल द्रव्य का मूर्त होना सिद्ध है । श्रतः मन:पर्यय ज्ञानी संसारी जीव और पुद्गल दोनों रूपी द्रव्यों को जानता है। मन:पर्ययज्ञान का विषय द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रत्येक जघन्य, उत्कृष्ट व अजघन्य अनुत्कृष्ट ( मध्यम या तद्व्यतिरिक्त) प्रमाण बाला है ।
'जीव लक्खिय' गाथा में इस पद के द्वारा यह कहा गया है कि मन:पर्ययज्ञान का विषय वही रूपी द्रव्य हो सकता है जो जीव के द्वारा चिन्तित हो ।
ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान का जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य प्रमा
प्रवरं दव्वमुदालियसरीरस्थिज्जिण्णासमयबद्ध ं तु । afबियरिगज्जण्णं उक्कस्तं उजुमदिरुस हवे ||४५१ ॥
१. "मदिगणे वा मुदणाणेा वा मग वचि काय भेदं गाए पच्छात्तत्थट्टिदमत्यं पचत्रस्त्रेण जाणं तस्ल महायज्जवरणागणस्स दव- वेत्त-काल- भावभे विस चउब्विहो ।" [घवल पु. ६ पृ. ६३] २. धवल पु. १३ पृ. ३३३ । ३. त. सू. अ. ५ ।