Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४३८-४०
जानमार्गरगा/५१३
समाधान-यदि केवल संयम हो मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो ऐसा भी होता, किन्तु मनःपर्ययशान की उत्पत्ति के प्राय भी कारण हैं, इसलिए उन दुसरे हेतुओं के न रहने से समस्त संयतों के मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता ।
शङ्का- वे दूसरे कारण कान से है ?
समाधान—विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र और कालादि अन्य कारण हैं, जिनके बिना सभी संयमियों के मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता ।'
शङ्का--देशविरति आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मनःपर्यय ज्ञान क्यों उत्पन्न नहीं
होता?
समाधान नहीं, अयोंकि संयमासंयन और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।
वह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और बिपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। तथा ऋजूमति और विपुलमति विशेषगों के द्वारा विशेषता को प्राप्त हुए मनःपर्ययज्ञान के एकत्व का अभाव है। जो ऋजुमतिमन:पर्यय ज्ञान तीन प्रकार का है वह ऋजुमनोगत को जानता है, ऋजु वचनगत को जानता है और ऋजु कायगत को जानता है ॥६२।।'
शङ्का--मन को ऋजुपना कैसे प्राता है ?
समाधान-जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उसका उस प्रकार से चिन्तन करने वाला मन ऋजु है और उससे विपरीत चिन्तन करने वाला मन अनजु है।
शङ्का-वचन में ऋजुपना कैसे आता है ?
समाधान—जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उस-उस प्रकार से ज्ञापन करने वाला वधन ऋज़ है तद् विपरीत वचन अनृजु है ।'
शङ्का- काय में ऋजुपना कैसे प्राता है ?
समाधान -जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उस को उसी प्रकार से अभिनय द्वारा दिखलाने बाला काय ऋज़ है और उससे विपरीत काय अन्जु है।
उनमें से जो ऋजु अर्थात् प्रगुरण होकर मनोगत अर्थ को जानता है, वह ऋजुमति मनः पर्यय ज्ञान है । वह मन में चिन्तवन किये गये पदार्थ को ही जानता है । वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित और विपरीतरूप से चिन्तित अर्थ को नहीं जानता है।
१. धवल पू. १ पृ. ३६७। २. पवल पु. १पृ. ३६६ । ३. जमघवल पु. १३. २०: पवन पु. ६ पृ. २८ । ४. "उजु-विउल मदि बिसेसरणेहि जिसेसिदमण-पज्जवणारगरस एयलाभादेरण" [धवल पु. १३ पृ. ३२६] । ५. धवल पु. १३ पृ. ३२६ मूत्र ६२ । ६. धवल पु. १३ पृ. ३३० ।