Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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ज्ञानमार्गा/ ५११
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न स्वभाव वाले विविध कल्पों में अपने कल्प के भेद से अवधि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम भिन्न होने में कोई विरोध नहीं है। परन्तु क्षेत्र की अपेक्षा काल के लाने पर सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक उक्त काल पस्योपम का संख्यातवाँ भाग होना चाहिए, क्योंकि एक घनलोक के प्रति यदि एक पल्यकाल प्राप्त होता है तो धनलोक के संख्यातवें भाग के प्रति क्या लब्ध होगा ? इस प्रकार शशिक करके फलराशि से गुणित इच्छा राशि में प्रभाणराशि का भाग देने पर पल्योपम का संख्यातवाँ भाग काल उपलब्ध होता है । परन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा गुरु का उपदेश नहीं पाया जाता । अतः क्षेत्र की अपेक्षा किये विना जहाँ जी काल कहा है, उसका ग्रहण करना चाहिए।"
गाथा ४३७-४४०
अथवा ये सभी देव काल की अपेक्षा कुछ कम एक पल्य के भीतर प्रतीत अनागत द्रव्य को जानते हैं। यह भी गुरु का ही उपदेश है। इस विषय का कथन करने वाला वर्तमान काल में कोई सूत्र नहीं है।
जोइसितारोही खेत्ता उत्ता प होंति घणपदरा ।
कष्पसुराणं च पुरषो विसरित्थं प्रायदं होदि ॥४३७||
गाथार्थ --- विशेषार्थ सहित - भवनवासी व्यन्तर श्रीर ज्योतिषी देवों का प्रवधिविषयक क्षेत्र घन व प्रतर रूप नहीं है, क्योंकि गोलाकार तिर्यक रूप क्षेत्र अधिक है और ऊर्ध्वं अधः अल्प है । कल्पवासी देवों का अधिक्षेत्र प्रायत की अपेक्षा विसा है तिर्यग रूप से सभी विमानवासी देवों का क्षेत्र राजूप्रतर है । अर्थात् तियंग रूप अल्प है और ऊपर नीचे की तरफ अधिक है। जैसे सौधर्म से ईशान का क्षेत्र ऊपर से नीचे डेढ़ राजू तथा सानतकुमार माहेन्द्र ऊपर से नीचे चार राजू इत्यादि जानते हैं । अर्थात् श्रायत विस है। किन्तु तिर्यग् रूप सदृश है क्योंकि सबका तिर्यग क्षेत्र एक राज् प्रतर प्रसारण है || ४३७॥
॥ इति श्रवधिज्ञानम् ॥
मन:पर्ययज्ञान का स्वरूप
चितियमचितियं या श्रद्ध ं चितिय मरणेय भेयगयं । मापज्जवं ति उच्चइ जं जागइ तं खु गरलोए ||४३८ || मरणपज्जवं च दुविहं उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा । उज्जुमरात्रयणे काए गदत्थविसयात्ति रियमेर ||४३६ ॥ विलमदोषिय छद्धा उजुगाणुजुवयरणकायचित्तमयं । प्रत्थं जारगदि जम्हा सद्दत्यगया हु तारणत्था ||४४० ॥
१. धवल पु. १३ पृ. ३१८ । २. धवल पु. १३ पृ. ३२० ३. धवल यु. १ पृ. ३६०, प्रा. पं. सं. अ. १
मा. १२५ ।