Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५१०/गो. सा. जीव काण्ड
गाया ४३०-४३६
अनन्तबें भाग की, जितनी शलाकायें स्थापित की हैं, उतनी बार भाग देने पर जो अन्तिम रूपगत पुदगल प्राप्त होता है, वह उस-उस देव के अवधिज्ञान का विषय होता है। यहाँ पर 'च' प्राब्द अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने के लिए आया है। इससे मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवे भाग रूप भागाहार तदवस्थित रहता है, यह सिद्ध होता है।
सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों के अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य - लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण अपने क्षेत्र को शलाकारूप से स्थापित करके और मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भागका बिरतन करके विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति सब द्रव्य को समान खण्ड करके देने पर शलाका राशि में से एक आकाशान कर देना चाहिए । पुनः यहाँ विरलित राशि के एक अंक के प्रति जो राशि प्राप्त होती है उसे उक्त विरलन राशि के ऊपर समान खण्ड करके स्थापित करें और शलाकाराशि में से दूसरी शलाका कम करें। यह क्रिया सब शलाकाओं के समाप्त होने तक करें। यहाँ सबसे अन्तिम क्रिया के करने पर जो एक अंक के प्रति प्राप्त पुदगल द्रव्य निष्पन्न होता है उसकी संज्ञा रूपगत है। उसे सौधर्म और ऐशान कल्प के देव अपने अवधि ज्ञान द्वारा देखते हैं। इसी प्रकार सब देवों में अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्य के प्रमाण का कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने क्षेत्र को शलाका रूप से स्थापित कर यह क्रिया करनी चाहिए।
शङ्का - यह द्रव्य देत्रों में क्या उत्कृष्ट है या अनुरकृष्ट है ?
समाधान-- नहीं. क्योंकि देव जाति विशेष के कारण ज्ञान के प्रति समान भाव को प्राप्त होते हैं, अतएव उनमें अवधिज्ञान के द्रव्य का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद नहीं होता।'
शङ्का-यह सूत्र कल्पवासी देवों की ही अपेक्षा से है, शेष जीवों की अपेक्षा से नहीं है. यह किस प्रमाण से जाना जाता है?
समाधान—यह तिर्यंच और मनुष्यों में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का कथन करने वाले सूत्र (गाथा सूत्र ३७८) से जाना जाता है और वार्मरण शरीर को जाननेवाले जीवों के अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस कथन का 'असंखेज्जा दीव-समुद्दा' इस गाथा सूत्र (४०७) के साथ विरोध आता है।
सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवों के काल की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय असंख्यात करोड़ वर्ष है। सानतकुमार-माहेन्द्र का काल की अपेक्षा अवधिज्ञान विषय पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। मह्म-ब्रह्मोत्तर के अवविज्ञान का विषय काल की अपेक्षा पल्यापम के असंख्यातव भाग है लान्तव से लेकर उपरिम |वेयक तक के देवों का काल विषय कुछ कम पल्योरम प्रमाण होता है।
राजा--ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पों में काल पल्य का असंख्यातवां भाग कहा गया है। फिर यहाँ उनमे कुछ अधिक क्षेत्र को देखनेवाले लान्तव और कापिष्ट के देवों में उक्त काल कुछ कम पल्य प्रमाण भे हो सकता है ? 3
१. धवल पु. १३ पृ. ३२१ । २. धवल पु. १३ पृ. ३२२ । ३. धवल पृ. १३ पृ. ३१७ ।