Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५१६ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४४२-४४४
गाथार्थ – जिस प्रकार अवधिज्ञान शंखादि शुभ चिह्नों से युक्त समस्त प्रङ्ग से उत्पन्न होता है, उस प्रकार मन:पर्ययज्ञान जहाँ पर द्रव्य मन होता है उन्हीं प्रदेशों से उत्पन्न होता है ॥४४२|| ग्राङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों के द्वारा हृदयस्थान में नियम से विकसित आठ पांखडी के कमल के श्राकार में द्रव्यमन उत्पन्न होता है || ४४३ || भी है। क्योंकि शेष इन्द्रियों के समान द्रव्यमन व्यक्त नहीं है । मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है || ४४४ ||
उस द्रव्यमन की नोइन्द्रिय संज्ञा द्रव्यमन के होने पर ही भावमन तथा
विशेषार्थ - शङ्का - जिस प्रकार अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का (शंखादि चिह्नों का ) कथन किया है, उसी प्रकार मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का कथन क्यों नहीं करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम विकसित बाट पांडयुक्त कमल जैसे प्राकार वाले द्रव्यमन प्रदेशों में उत्पन्न होता है, उसमे इसका पृथग्भूत संस्थान नहीं होता ।"
मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा मानस को अर्थात् मनोवर्गणा के स्कन्धों से निष्पन्न हुई नोइन्द्रिय को ग्रहण करके पश्चात मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जानता है।
शंका- नोइन्द्रिय अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञान के द्वारा कैसे ग्रहण होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ईहारूप लिंग के अवलम्बन के बल से अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है। अथवा मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा भानस अर्थात् मतिज्ञान के विषय को ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्यय ज्ञान प्रवृत्त होता है । "
प्रवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान संज्ञी जीवों के ही होता है । मन सहित जीव संज्ञी हैं । मन दो प्रकार का है, द्रव्यमन व भावमन । उनमें पुद्गलविपाकी अंगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्यमन है। तथा वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण ( मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपराम रूप श्रात्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भावमन है |
शङ्का - जोव के नवीनभव को धारण करने के समय ही भावेन्द्रियों की तरह भाव मन का भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्तकाल में भावेन्द्रियों का सद्भाव कहा जाता है, उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्भाव क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा जिसके द्रव्यमन ग्रहण नहीं होता, ऐसे भाव मन का अपर्याप्त रूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है, ऐसे द्रव्यमन के सत्र का प्रसंग आजाएगा।
इससे जाना जाता है कि द्रव्य मन के सद्भाव में ही भावमन उत्पन्न होता है और मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो सकता है। किन्तु द्रव्यमन के अभाव में न तो भावमन होता है और न मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है ।
१. भ.पु. १२ पृ. ३३१-३३२ ।
६. भ.पु. १३ . ३४१
३. पु. १ पृ. २५६