Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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ज्ञानमार्ग/५१५
यथार्थं मन, वचन और काय का व्यापार ऋजु कहलाता है। तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मन, वचन और काय का व्यापार श्रनृजु कहलाता है। अर्धचिन्तन या श्रचिन्तन का नाम अनव्यवसाय है । दोलायमान ज्ञान का नाम संशय है । अयथार्थ चिता का नाम विपर्यय है । विचार करके जो भुल गये हैं उसे भी वह ज्ञान जानता है। जिसका भविष्य में चित्तवन करेंगे उसे जानता है, क्योंकि अतीत और अनागत पर्यायों का अपने स्वरूप से जीव में गाया जाना सम्भव है ।"
गाथा ४४१-४४४
मन:पर्ययज्ञानसंग के हो होगा है और संयत मनुष्य ही होते हैं अतः मन:पर्यय ज्ञानी मनुष्यलोक में ही होते हैं। मनुष्य नरलोक में ही होते हैं, बाहर नहीं होते, क्योंकि प्रतीत काल में भी पूर्व के वैरी देवों के सम्बन्ध से भी मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्यों का गमन नहीं है । मनः पर्यय ज्ञान के विषयक्षेत्र का कथन गा. ४५५ - ४५६ में किया जाएगा।
मन:पर्ययज्ञान तो मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, किन्तु अवधिज्ञान अवधिदर्शन पूर्वक होता है
तियकालविसयरूवि चितितं वट्टमाण जीवेण ।
उजु मदिराणं जापदि भूदभविस्सं च विउलमदी ||४४१ ||
गाथार्थ - - वर्तमान जीव के द्वारा चिन्त्यमान त्रिकालविषयक रूपी द्रव्य को ऋजुमति मनः पर्ययज्ञानो जानता है, किन्तु विपुल-मति मन:पर्ययज्ञानी भूत और भविष्यत् द्रव्य को भी जानता है ।। ४४१ ।।
विशेषार्थ ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन में चिन्तवन किये गये पदार्थ को ही जानता है, अचिन्तित पदार्थ को नहीं, किन्तु विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान चिन्तित व प्रचिन्तित ( जिसका भूत में चितवन हो चुका या भविष्य में चिन्तवन होगा ) ऐसे कालवर्ती रूपी द्रव्य ( पुद्गल व संसारीजीव) ४ को भी जानता है।" इसका विशेष कथन गा. ४४८, ४४६ व ४५० में किया जाएगा।
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मन:पर्ययज्ञान किन प्रदेशों से उत्पन्न होता है नया द्रव्य मन के श्राकार आदि का कथन सन्वंगअंगसंभवचिण्हा दुष्पज्जदे जहा ओहो । मरणपज्जयं च दध्वमरणादो उप्पज्जदे गियमा ||४४२॥ हिवि होदि हु बध्यमणं वियसिय अट्ठच्छदारविवं था । अङ्गोबंगुदयादो मग्रखंधदो रियमा ।।४४३ ।। रगोइंदियत्ति सण्णा तस्स हत्रे सेसइंदियाणं वा । वत्तत्ताभावादो मामरा पज्जं च तत्थ हवे ||४४४ ||
१. ध. पु. १३ पृ. २४० ॥ २. " ती काले पुन्ववदरिषदेव संबंधेरण त्रि माणुसुत्तरमेलादो पन्दो मणुसा गमरणाभावादो ।" [घ.पू. ७ पृ. ३८०] । ३. "मशापज्जवराणं मदि पृथ्वं नेव, मोहीगाणं पुरुष श्रोहिदमण पुव" [ श्र.पु. ६ प्र. २९ ] | ४. "संसारी जीव मूर्त है" [ध.पु. १३ पृ. ३३३ । ५. ध. पु. ६ पृ. २८ ।