Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५१२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३३८-४४०
गाथार्थ –चिन्तित-प्रचिन्तित, व अर्धचिन्तित इत्यादि अनेक भेदयुक्त द्रव्य को मनुष्यलोक में जो जानता है, वह मनःपर्यय जान मन गया ।।३॥ यशान दो प्रकार का है---ऋजुमति व विपुलमति। उनमें से ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान तीन प्रकार का है- ऋजुमनगत, ऋजुवचनमत, ऋजुकायगत ज्ञेय (अर्थ) को नियम से विषय करता है ।।४३६।। विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान छह प्रकार है। ऋजुमनगत, ऋजुबचनगत व ऋजुकायगत चिन्तन किये जा रहे अर्थ (ज्ञेय) को बिषय करने वाले तथा कुटिल मन वचन काय के द्वारा चिन्तन किये जाने वाले ज्ञान की अपेक्षा विपुलमति के छह भेद हो जाते हैं। मनःपर्यय ज्ञान के विषय शब्दगत व अर्थगत दोनो ही प्रकार के होते हैं ।।४४०॥
विशेषार्थ-परकीय मनोगत अर्थ मन कहलाता है ।' 'पर्यय' में परि शब्द का अर्थ सब ओर, और अय शब्द का अर्थ विशेष है। मन का पर्यय मनःपर्यय है। उस मन को पर्यायों अर्थात् विशेषों को मनःपर्यय कहते हैं। मन की पर्याय को मनः पर्यय कहते हैं। तथा उसके साहचर्य से जान भी मनःपर्यय, कहलाता है। इस प्रकार मनःपर्यय रूप जो ज्ञान है वह मन पर्थयज्ञान है। मन की पर्यायों अर्थात् विशेषों को जो ज्ञान जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है । मनःपर्यय का ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है। इस प्रकार यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है ।
शा--सामान्य को छोड़कर केवल विशेष का ग्रहण करना सम्भव नहीं है। क्योंकि ज्ञान का विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिए सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करनेवाला मनःपर्यय. ज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह हम को इष्ट है। शङ्का- तो मनःपर्ययज्ञान के विषयरूप से सामान्य का भी ग्रहण होना चाहिए। समाधान-नहीं, क्योंकि सामर्थ्य से उसका ग्रहण हो जाता है।"
अथवा मनःपर्यय यह संज्ञा रूढिजन्य है, इसलिए चिन्तित और अचिन्तित दोनों प्रकार के अर्थों में (ज्ञेय में) विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । अवधिज्ञान के समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है। क्योंकि यह इन्द्रियों से नहीं उत्पत्र होता है।
अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यय ज्ञान नियम से अल्प है, किन्तु यह मन:पर्यय क्योंकि संयम के निमित्त से उत्पन्न होता है, इसलिए अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यय ज्ञान महान है, यह वतलाने के लिये इसका अवधिज्ञान के बाद निर्देश किया है।
शङ्का-यदि संयममात्र मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मनःपर्ययज्ञान क्यों नहीं होता? - - - - १.स. मि.१/४ धवल पु.६ पृ. २८, पू.१३ पृ.२१२ व ३२८ । २. धबल पू.१३ पृ. ३२८ । ३. धवल पु. ६ पृ. २८ । ४. जयधवल पु. १ पृ. १९-२० | ५. धवल पु.९ पृ. २८ । ६. धवल पु. १३ पृ. ३२८ । ७. धवल पु. १३ पृ. २१२। ८. धवल पु. १३ पृ. २१२ । ६. धवल पु. १३ पृ. २१३ ।