Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२६०/मो. सा. जीवकाण्ड
चारों के
संभागस्स विदमाणं तुं 1
तद्देहगुल श्राधारे थूला प्रो सम्वत्थ खिरंतरा सुहुमा ॥ १८४॥ । '
गाथा १६४
गाथार्थ - हे भव्यो ! बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के चारों स्थावर जीवों की अवगाहना धनांगुल के प्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण है | स्थूल अर्थात् बादर जीव प्राधार की अपेक्षा रखता है किन्तु सूक्ष्म जीव व्यवधान के बिना सर्वत्र भरे हुए हैं ।। १८६४ ॥
विशेषार्थ प्राठ यव से द्रव्य अंगुल निष्पन्न होता है, उसको तीन बार परस्पर गुरिणत करने से घनांगुल हो जाता है । उस द्रव्य घनांगुल में जितने प्रकाण के प्रदेश हों, उन प्रदेशों के असंख्यात खण्ड करने पर उनमें से एक खण्ड, अंगुल का असंख्यातवां भाग होता है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक बादर व सूक्ष्म जीवों के शरीर की उतनी अवगाहना होती है अर्थात् घनांगुल के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशप्रदेशों को उक्त जीवों का शरीर रोककर ठहरता है ।
शङ्का – घनांगुल प्रमारण आकाशप्रदेशों का भागहार क्या है ?
समाधान- पल्य का असंख्यातवां भाग
- यह जघन्य श्रवगाहना का प्रमाण है या उत्कृष्ट श्रवगाहना का ?
समाधान - सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीव की जघन्य शरीर अवगाहना से लेकर वादर पर्याप्त पृथिवीकायिक की उत्कृष्ट शरीर अवगाहना पर्यन्त जितनी भी शरीर अवगाहना है अर्थात् दर व सूक्ष्म feat कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की सर्व शरीर अवगाहनाओं का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है ।
शङ्का - सब शरीरों की अवगाहना भिन्न-भिन्न होती है, उन सबका प्रमाण एक कैसे हो सकता है ?
समाधान- अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद हैं, क्योंकि असंख्यात संख्या भी असंख्यात प्रकार की होती है। सामान्यदृष्टि से वे सब अंगुल के असंख्यातवें भाग हैं तथापि विशेषदृष्टि से उनमें परस्पर होनाधिकता है ।
शङ्का - विशेषरूप हीनाधिकता है या गुणाकार रूप हीनाधिकता है ?
समाधान - विशेषरूप हीन- अधिकता भी है और गुणाकार रूप हीन- अधिकता भी है। यह पूर्व में शरीर अवगाहना के कथन से स्पष्ट है ।
शङ्का - अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग में गुणाकार वृद्धि होने पर भी अंगुल का असंख्यातवभाग ही बना रहता है यह कैसे सम्भव है ?
१. "अंगुल संभागं बादरहुमा" [मूलाचार पर्यात्यधिकार १२ गा. ४६]; "देसेहि बादरा खलु सुमेहि गिरंतरो लोश्रो ।।" [मूलाचार पर्याप्यधिकार १२ गा. १६१] । २. गो. जी.गा. ६४-११२ ।