Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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ज्ञानमार्गा/४६३.
को प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से गुणा किया जाता है तब क्षेत्र का द्वितीय विकल्प होता है। इसी प्रकार असंख्यात क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर जब जघन्य काल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुपित किया जाता है तब काल का द्वितीय विकल्प होता है। इस प्रकार देशावधि के उत्कृष्ट विकल्प तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार कितने ही प्राचार्य देशावधि का प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, यहाँ हम पूछते हैं कि पूर्व व्याख्यान में कहे हुए अध्वान के सदृश ही इस व्याख्यान का अध्वान है अथवा विसदृश ? उक्त दो पक्षों में समान पक्ष युक्त है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर क्षेत्र और काल को प्रसंख्यात लोकपने का प्रसंग होगा । वह इस प्रकार से – प्रावली के संख्यातवें भाग मच्छेदों से लोक के अर्धच्छेदों को अपवर्तित करके प्राप्त राशि का विरलन कर प्रत्येक रूप के प्रति गुग्गुकारभूत प्रावली का असंख्यातवाँ भाग देना चाहिए। विरलन मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर अवधि का क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि, विरलन मात्र आवली के असंख्यात भागों को परस्पर गुणित करने पर लोक की उत्पत्ति होती है। यहाँ पत्योपम के असंख्यातवें भाग श्रध्वान में ही श्रवधिक्षेत्र प्रसंख्यात लोकमात्र हो गया है। इससे ऊपर जाने पर स्वयमेव क्षेत्र को श्रसंख्यात लोकपने का प्रसंग आएगा और यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र लोक मात्र हैं, ऐसा स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार काल के भी असंख्यात लोकपने के प्रसंग की प्ररूपणा करनी चाहिए और देशावधि का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, ऐसा अभीष्ट नहीं है, क्योंकि, आचार्य परम्परागत उपदेश से देशावधि का उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्यप्रमाण सिद्ध है ।
या ४०९
द्वितीय (असमान) पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, पूर्वोक्त अध्वान से अधिक अध्वान स्वीकार करने पर पूर्वोक्त दोष का प्रसंग श्राएगा। यदि पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र विकल्पों को स्वीकार करें तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करने पर देशावधि के असंख्यात लोक मात्र क्षयोपशमविकल्पों के अभाव का प्रसंग होगा, तथा काल के ग्रावली के असंख्यातवें भागत्व का प्रसंग भी होगा। दूसरी बात यह है कि क्षेत्र और काल के क्षयोपशम प्रसंख्यातगुणित क्रम से देणावधि में अवस्थित नहीं हैं ।
देशावधि के ११ काण्डक
अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जदोवि संखेज्जो । गुलावलितो प्रावलियं चांगुलपुधत्तं ॥ ४०४ ||
गाथार्थ - जहाँ अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है वहाँ काल आवली के संख्यातवें भाग मात्र है। जहाँ क्षेत्र श्रंगुल के संख्यातवें भाग है वहाँ काल प्रावली का संस्थातवाँ भाग है । जहाँ क्षेत्र अंगुल प्रमाण है वहाँ काल अंतरावलीय ( देशोन ग्रावली ) है । जहाँ काल आवलीप्रमाण है वहाँ क्षेत्र अंगुल - पृथवस्त्र है ॥ ४०४ ॥
विशेषार्थ 'अंगुल' से प्रमाणधनांगुल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि देव, नारकी, तिर्यंच और
१. धवल पु. १३ पृ. ३०४, पू. पू. २४, म. बं. पु. १ पृ. २१ ।