Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४२०-४२१
ज्ञानमार्गगा/५०३ स्थित अबधिनिबद्ध क्षेत्र में भाग देने पर जो लब्ध हो उतने मात्र गुणकार होता है, अन्य नहीं ।
परमाधिकाल को उसके योग्य असंख्यात रूपों से गुणा करने पर सर्वावधि का काल अर्थात् . उत्कृष्ट काल होता है ।
शङ्कर--यह एक ही लोक है, परमावधि और सर्वावधि असंख्यात लोकों को जानते हैं, यह कैसे घटित होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यदि सब पुद्गल राशि असंख्यात लोकों को पूर्ण करके स्थित हो तो भी वे जान लेंगे। इस प्रकार उनकी शक्ति का प्रदर्शन किया गया है।
इच्छिदरासिच्छेदं विष्णच्छेदेहि भाजिदे तत्थ । लद्धमिदिण्णरासीरणभासे इच्छिदो रासी ।।४२०॥ विष्णच्छेदेरगयहिदलोगच्छेदेरण पदधणे भजिदे ।
लडमिवलोगगुणणं परमावहिचरिमगुणगारो ॥४२१।। ___ गाथार्थ-देय राशि के अर्धच्छेदों द्वारा इच्छित राशि के अर्धच्छेदों को विभाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी बार देयराशि को परस्पर गुणा करने से इच्छित राशि उत्पन्न होती है ।।४२०।। देयराशि के अर्धच्छेदों से विभक्त लोक के अर्घच्छेद, उनका विवक्षित पद के (संकलित) धन में भाग देने पर प्राप्त लब्ध प्रमाण बार लोक को परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो वह परमावधि के विवक्षित भेद में गुरणकार होता है। इसी तरह परमावधि के चरम भेद में भी गुणकार निकालना चाहिए ॥४२।।
विशेषार्थ -देय राशि यदि चार हो तो उसके अर्धच्छेद दो, यदि इच्छित राशि २५६ हो तो उसके अर्धचंद्रद ८ । दो से पाठ को विभक्त करने पर लब्ध चार (8= ४) प्राप्त होते हैं। उतनी वार अर्थात् चार बार देयराणि (४) को परस्पर गुरणा करने से (४४४४४४४) इच्छित राशि २५६) उत्पन्न हो जाती है। यह गाथास्वरूप प्रथम करण सूत्र का अभिप्राय है।
द्वितीय गाथा की अंकः संस्टि- देय राशि (४) के अर्धच्छेद (२) ।
लोक (२५६) के अर्धच्छेद (८)। परमावधि के अन्तिम पद की क्रमसंख्या (६४) का संकलम धन (२०५०) ।
देय राशि के अर्धच्छेद (२) से विभक्त लोक के अर्धच्छेद (८) (-४) चार है। इस चार से अन्तिम पद (६४) के संकलन धन (२०८०) को भाग देने से (१९८० = ५२०) प्राप्त होते हैं । ५२० बार लोक (२५६) को परस्पर गुणा करने से अन्तिम पद का गुणकार होता है। परमार्थत: यहाँ देय राशि प्रावली का असंख्यातवाँ भाग है उसके अच्छेदों का भाग लोक के अर्धरछेदों में देने पर
६-२. धवल पु. १ पृ. ५। ३. घवल पु. १ पृ. ५०-५१ ।