Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४०७
शङ्का-अर्घ और पूर्ण चन्द्र के आकार रूप से स्थित भरत, जम्बूद्वीप, मनुष्यलोक और रुचकवर द्वीप आदि क्यों नहीं ग्रहण किये जाते ?
___ समाधान --नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर अंगुल आदि में भी उस प्रकार के ग्रहण का प्रसंग पाता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर अव्यवस्था का प्रसंग आता है।' (अतः इनके धनात्मक ही क्षेत्र गृहीत किए जाते हैं।)
संखेज्जपमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा ।
कालम्मि असंखेज्जे दोब-समुद्दा असंखेज्जा ॥४०॥ गाथार्थ-जहाँ काल संख्यात वर्ष प्रमाण होता है, वहाँ क्षेत्र संख्यात द्वीप-समुद्र प्रमाण होता है और जहाँ काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है, वहीं क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्र प्रमाण होता है । ॥४०७॥
विशेषार्थ-काल के प्रमाण की अपेक्षा अवधिज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्र के प्रमाण का कथन करने के लिए यह गाथा पाई है। 'संखेज्जदिमे काले' अर्थात संख्यात काल के होने पर। यहाँ काल' शब्द वाचौसालापवादोनो, अन्यथा जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र भी असंख्यात द्वीप-समुद्रों के घनयोजन प्रमाण प्राप्त होगा।
शङ्का-काल शब्द वर्षवाची है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि काल-सामान्य में विशेष काल का ग्रहण सम्भव है और समय, आवली, मुहर्त, दिवस, अर्धमास और मास से सम्बन्ध रखने बाले अवधिज्ञान के क्षेत्र का निरूपण पहले हो चुका है।
___ अवधिज्ञान द्वारा संख्यात वर्षों सम्बन्धी अतीत और अनागत द्रव्यों को जानता हुमा क्षेत्र की अपेक्षा संख्यात द्वीप-समुद्रों को जानता है । उस अवधिज्ञान के क्षेत्र को घनाकार रूप से स्थापित करने पर वह संख्यात द्वीप-समुद्र के अायाम धनप्रमाग होता है। काल के असंख्यात वर्ष प्रमाण होने पर अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र घनरूप से स्थापित करने पर असंख्यात द्वीप-समुद्रों का पायाम धनप्रमाण होता है।
गाथा ४०४ में प्रथम तीन काण्डकों का, गा. ४०५ में चौथे काण्डक से लेकर सातवें काण्डक तक चार काण्डकों तक चार काण्डकों का, गाथा ४०६ में प्राठवें काण्डक से ग्यारहवें काण्डक तक चार काण्डकों का तथा गा. ४०७ में बारहव काण्डक का व शेष सात काण्डकों का कथन है।
[नालिका पृष्ठ ४६७ पर देखें
३. प. पु. १३ पृ. ३०८।
१. . पृ. १३ पृ. ३०७-३०८ । २. ध पु. १३ पृ. ३०८, म. बं पु. १ पृ. २१। ४. धवल पु. १३ पृ. ३०८-३०६ ।।