Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४४२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ३५६-३६०
इस प्राचाराङ्ग में चर्याविधि, पाठ शुद्धियों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के भेदों की प्ररूपणा की जाती है। इत्यादि रूप से यह मुनियों के प्राचरण का वर्णन करता है।
सूत्रकृताङ्ग-छत्तीस हजार (२६०००) पद प्रमाण सूत्रकृताङ्ग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्म क्रियानों की दिगन्तर शुद्धि से प्ररूपणा की जाती है।' तथा यह स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है । यह अंग स्त्री सम्बन्धी परिणाम, क्लीवता, अस्फुटत्व, काम का आवेश, विलास, प्रास्फालन-सुख और पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण करता है ।
___ स्थानांग-यह अंग बयालीस हजार पदों के द्वारा जीव और पुदगल यादि के एक को प्रादि लेकर एकात्तर क्रम से स्थानों का वर्णन करता है । यथा
एक्को चेव महागा सो दुवियप्पो तिलक्खरणो भणिदो। चदु संकमणाजुत्तो पंचगगुणप्पहारणो य ॥६४॥ छक्कपक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगि सम्भावो।
प्रवासवो णवट्ठो जीवो दसट्टाणिनो भरिणी ॥६५॥ --यह जीव महात्मा अविनश्वर चैतन्य गुण से अथवा सर्वजीव साधारण उपयोगरूप लक्षण से युक्त होने के कारण एक है। वह ज्ञान और दर्शन, संसारी और मुक्त, अथवा भव्य और प्रभव्य रूप दो भेदों से दो प्रकार का है। ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की अपेक्षा, उत्पादव्यय ध्रौव्य की अपेक्षा, अथवा द्रव्यगुणपर्याय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। नरकादि चार गतियों में परिभ्रमण करने के कारण चार संक्रमणों से युक्त है। औपशमिक आदि पांच भावों से युक्त होने के कारण पांच भेद रूप है। मरण समय में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व व अधः इन छह दिशाओं में गमन करने रूप छह अपक्रमों से सहित होने के कारण छह प्रकार है। सात भंगों से उसका सद्भाब सिद्ध है, अतः बह सात प्रकार है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रास्रब से युक्त होने, अथवा आठ कर्मों या सम्यक्त्वादि पाठ गुणों का माश्रय होने से आठ प्रकार का है। नौ पदार्थ रूप परिणमन करने की
क्षा नौ प्रकार है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक व साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय रूप दस स्थानों में प्राप्त होने से दस प्रकार का है ।
समवायांग में एक लाख चौंसठ हजार (१६४०००) पदों द्वारा सर्व पदार्थों की समानता का विचार किया जाता है। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रथम द्रव्य समवाय का कथन इस प्रकार है--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश परस्पर समान हैं।'
शङ्का . प्रदेशों को द्रव्यपना कैसे सम्भव है ?
१. धवल पु. ६ पृ. १६७। २. जयधवल पु. १ पृ. १२२ । ३. धवल पु. १ पृ. ६६, पु. ६. पृ. १६८-१६६। ४. धवल पु. १ पृ. १६ । ५. जयघवल पु. १ पृ. १२२ । ६. धवल पु. १ पृ. १००, पु.१ .१९८, जयधनल पु. १ पृ. १२३ । ७. धवल पु. ६ पृ. १६८-१.६। . धवल पु. १ पृ. १६६। १. अयधवल पु. १ पृ. १२४ ॥