Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६७-३६८
जह जह सुदमोगाहिदि अदिसयरसपसरमसुदपुच्वं तु । तह तह पल्हाविमवि णव णवसंवेगसद्धाए ॥२२॥ जं अण्णाणी कम्मं खयेइ भवसयसहस्सकोडीहि ।
तं गाणी तिहि गुत्तो खवेद अंतोमुहत्तेण ॥२३॥ -स्वाध्याय को करने वाला भिक्षु पाँचों इन्द्रियों के व्यापार से रहित और तीन गुप्तियों से सहित होकर एकाग्रमन होता हुआ विनय से संयुक्त होता है ।।२१। जिसमें अतिशय रस का प्रसार है और जो अभुतपूर्व है ऐसे श्र त का बह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है ।।२२॥ अज्ञानी जीव जिस कर्म का लाखों करोड़ों भवों के द्वारा क्षय करता है उसका ज्ञानी जीव तीन गुप्तियों से गुप्त होकर अन्तमुहर्त में क्षय कर देता है ।।२३।।
द्वादशांग रूप वर्गों का समुदाय वचन है, जो 'अयंत गम्यते परिच्छधते अर्थात् जाना जाता है, वह अर्थ है। यहाँ अर्थ पद से नौ पदार्थ लिये गये है। वचन और अर्थ ये दोनों मिल कर बचनार्थ कहलाते हैं। जिस पागम में वचन और अर्थ ये दोनों प्रकृष्ट अर्थात् निर्दोष हैं, उस पागम की प्रवचनार्थ संज्ञा है।
शङ्गा–प्रत्यक्ष व अनुमान से अनुमत और परस्पर विरोध से रहित सप्तभंगी रूप वचन सुनयस्वरूप होने से निर्दोष है। अतएव जब वचन को निर्दोषता से ही अर्थ की निर्दोषता जानी जाती है तब फिर अर्थ के ग्रहण का कोई प्रयोजन नहीं रहता ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शब्दानुसारी जनों का अनुग्रह करने के लिए 'अर्थ' पद का कथन किया है।
अथवा, प्रकृष्ट वचनों के द्वारा जो 'अयंते गम्यते परिच्छिद्रद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात द्वादशांग भावनत है। जो विशिष्ट रचना से प्रारचित हैं, बहुत अर्थवाले हैं, विशिष्ट उपादान कारणों से सहित हैं और जिनको हृदयंगम करने में विशिष्ट प्राचार्यों की सहायता लगती है, ऐसे सकल संयोगी अक्षरों से द्वादशांग उत्पन्न किया जाना है; यह उक्त कथन का तात्पर्य
यत: गतिशब्द देशामर्थक है, अत: गति शब्द का ग्रहण करने से चौदहों मागंणास्थानों का नहा होता है। गतियों में अर्थात् मार्गरणास्थानों में चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गलियों में मार्गणता नामक श्रति है। द्वादशांग का नाम प्रात्मा है क्योंकि वह आत्मा का परिणाम है। और परिणाम परिणामी से भिन्न होता नहीं है, क्योंकि मिट्टी द्रव्य से पृथग्भूत घटादि पर्याय पाई नहीं जाती।
__शङ्का द्रव्यश्चत और भावश्च त ये दोनों ही आगमसामान्य की अपेक्षा समान हैं। अतएच जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशांग को 'अात्मा' माना है, उसी प्रकार द्रव्यथ त के भी प्रात्मस्वता का प्रसंग प्राप्त होता है।