Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६२ गो. सा. जीवकाण
गाथा ३६७-२६८
अथवा, प्रकर्ष रूप से वचन अर्थात् जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूप से जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात प्ररूपित किये जाते हैं, वह प्रवचमसंन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग श्रुतज्ञान ही है।
नय नंगम आदिक हैं। वे सत् व असत आदिस्वरूप से जिसमें 'विधीयन्ते' अर्थात कहे जाते हैं वह नयविधि पागम है। अथवा नंगमादि नयों के द्वारा जीवादि पदार्थों का जिसमें विधान किया जाता है वह नयविधि-यागम है। नयान्तर अर्थात् नयों के नंगमादिक सात सौ भेद बिषयसांकर्य के निराकरण द्वारा जिसमें विहित अर्थात निरूपित किये जाते हैं वह नयान्तरविधि अर्थात् श्रुतशान है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यादिक के भेद भंग कहलाते हैं। उनका जिसके द्वारा विधान विया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है। अथवा, भंग का अर्थ स्थिति और उत्पत्ति का अविनाभाबी बस्तुविनाश है। वह जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है।
विधि का अर्थ विधान है। भंगों की विधि अर्थात् भेद विशेप्यते' अर्थात् पृथक रूप से जिसके द्वारा निरूपित किया जाता है वह भंगविधिविशेष अर्थात् श्रुतज्ञान है । द्रव्य, गुरग और पर्याय के विधिनिषेध विषयक प्रश्न का नाम पृच्छा है। उसके क्रम और अक्रम का तथा प्रायश्चित्त का जिसमें विधान किया जाता है, वह पृच्छाविधि अर्थात् श्रुत है। अथवा पूछा गया अर्थ पृच्छा है, बह जिसमें विहित की जाती है अर्थात् कही जाती है, वह पृच्छाविधि श्रुत है। विधान करना विधि है। पृच्छा की विधि पृच्छाविधि है। वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है वह पृच्छाविधिविशेष है। अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार से पूछे जाने योग्य है तथा प्रश्नों के भेद इतने ही हैं; ये सब चकि सिद्धान्त में निरूपित किये जाते हैं अत: उसकी पृच्छाविधि विशेष यह संज्ञा है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। 'तत्' इस सर्वनाम से विधि की विवक्षा है, तत् का भाव तत्व है।
शङ्का-श्रुत की विधि संज्ञा कैसे है ?
समाधान - चुकि वह सब नयों के विषय के अस्तित्व का विधायक है, इसलिए श्रुत की विधि संजा उचित ही है।
तत्त्व श्रुतज्ञान है। अागम अतीत काल में था, इसलिए उसकी भूत संज्ञा है। वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है। वह भविष्य काल में रहेगा इसलिए उसकी भविष्यत् संज्ञा है। आगम अतीत, अनागत और वर्तमान काल में है, यह उक्त बथन का तात्पर्य है। इस प्रकार वह मागम नित्य है।
शङ्का ऐसा होने पर पागम को अपौरुषेयता का प्रसंग पाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बाच्य-वाचकभाव से तथा वर्ण. पद ब पंक्तियों के द्वारा प्रवाह रूप से चले पाने के कारण आगम को अपौरुषेय स्वीकार त्रिया है ।
इस कथन से हरि, हर और हिरण्यगर्भ आदि के द्वारा रचे गये बचन पागम हैं; इसका निराकरण जान लेना चाहिए । वितश्र और असत्य ये समानार्थक शब्द हैं । जिस श्रुतज्ञान में वितथपना नहीं पाया जाता वह अस्तिथ अर्थात् तथ्य है। मिथ्याष्टियों के वचनों द्वारा जो न वर्तमान में हता