Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७१ है और यह सम्पूर्ण अङ्ग से उत्पन्न होता है । गुणप्रत्यय अबधिज्ञान मनुष्य व तिर्यचों के होता है और संखादि त्रिलों से होता है ।।३७१।।
विशेषार्थ - जो भवप्रत्यय अवधिज्ञान है, वह देव और नारकियों के होता है ।।
शङ्का-जो अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है वह देव और नारकियों के ही होता है, यह किसलिए कहा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि देवों और नारकों के भवों को छोड़कर अन्य भव उसके कारण नहीं हैं।
'घवल' ग्रंथ में तथा 'तत्त्वार्थसूत्र में भवप्रत्यय अवधिज्ञान मात्र देव और नारवियों के कहा गया है, किन्तु गाथा में तीर्थंकरों के भी भवप्रत्यय कहा गया है। यद्यपि तीर्थंकर कोई भव नहीं है तथापि तीर्थंकर नरक या स्वर्ग से आकर ही उत्पन्न होते हैं। नरक व स्वर्ग में भवप्रत्यय अवविज्ञान होता है और वह भवप्रत्यय-अवधिज्ञान उनके साथ आता है, इस अपेक्षा से पंचकल्याणकतीर्थकारों के अवधिज्ञान को भव-प्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है।
मिथ्याष्टियों के अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहा पुरत नहीं है कि हिचरित अवधिज्ञान की ही विभंगज्ञान संज्ञा है।
शङ्का-देव और नारकी सम्यग्दष्टियों में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं है, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व के बिना एक मात्र भव के निमित्त से ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति उपलब्ध नहीं होती है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों के अवधिज्ञान की उत्पत्ति होती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है ।
शङ्का--देव और नारकियों का अवधिज्ञान भव प्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होने पर सम्यग्दृष्टियों और मिथ्याष्टियों का अवधिज्ञान पर्याप्तभव के निमित्त से ही होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-त्रयोंकि अपर्याप्त देव और नारकियों के विभंग ज्ञान का प्रतिषेध अन्यथा बन नहीं सकता। इसीसे जाना जाता है कि उनके आवधिज्ञान पर्याप्त भव के निमित से ही होता है।
शङ्का-विभंगज्ञान के समान अपर्याप्तकाल में अवधिज्ञान का भी निषेध क्यों नहीं करते ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्पत्ति की अपेक्षा उसका भी वहाँ विभंगज्ञान के समान ही निषेध देखा जाना है। सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विभंगज्ञान के भी उसी प्रकार की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। सम्यवत्व से इतनी विशेषता हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भवप्रत्ययपना नष्ट १. "जंत भव-इयं तं देव-रयाणं 11५४ाय. प.१३ पृ. १९]"मयप्रत्ययोऽयधिदेवनारकाणाम ॥२॥" [त. सू. १] । २. ध. पृ १३ पृ. २६२ । ३. ध. पु. १३ पृ. २६० । ४, ध, पु. १३ पृ. २६०-२६१ ।